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________________ आचार्य जीवराजजी और उनकी परम्परा १६१ यह भी हुई कि जीवराजजी का क्रियोद्धार काल वि०सं० १६०८ मान लिया गया। वस्तुत: वि०सं० १६०८ जीवाजी ऋषि का काल है और इस समय लोकागच्छ विभिन्न शाखाओं में विभक्त हो गया था। जीवराजजी का काल परवर्ती है क्योंकि वे जीवाजी के प्रशिष्य बताये गये हैं, अत: उन्होंने वि०सं० १६६६ में क्रियोद्धार किया यह मानना ही उचित प्रतीत होता है। जीवराजजी द्वारा रचित अनेक स्तवन उपलब्ध होते हैं । इन स्तवनों में उनका रचना काल दिया गया है जो वि०सं० १६७५ से वि० सं० १६७७ के बीच का है। इसके अतिरिक्त इनके सम्बन्ध में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। आचार्य श्री लालचन्दजी. क्रियोद्धारक जीवराजजी के शिष्य लालचन्दजी हुए। श्री जीवराजजी के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् मुनि श्री लालचन्दजी आचार्य के पाट पर बैठे। मुनि श्री लालचन्दजी के जीवन के विषय में विशेष कुछ ज्ञात नहीं है। लालचन्दजी के चार प्रमुख शिष्य हुए जिनसे छ: परम्परायें चलीं। पहली परम्परा आचार्य अमरसिंहजी के नाम से प्रसिद्ध है। दूसरी परम्परा आचार्य नानकरामजी की है। नानकरामजी के शिष्य निहालचन्दजी से तीसरी परम्परा चली जो आचार्य हगामीलालजी के नाम से जानी जाती है। चौथी परम्परा स्वामीदासजी की चली। पाँचवीं परम्परा शीतलदासजी की है और छठी परम्परा नाथूरामजी की चली। इस प्रकार पूज्य आचार्य श्री जीवराजजी की परम्परा छ: शाखाओं में विभक्त हो गयी। हम यहाँ इन सभी परम्पराओं का क्रमश: वर्णन करेंगे आचार्य श्री अमरसिंहजी एवं उनकी परम्परा सन्त परम्परा के इतिहास में क्रियोद्धारक जीवराजजी के शिष्य लालचन्दजी के पाट पर मुनि श्री अमरसिहंजी बैठे। इस प्रकार जीवराजजी की परम्परा के आप तृतीय पट्टधर हुए और अपनी परम्परा के प्रथम। मरुधरा की मिट्टी को पावन करनेवाले आपश्री का जन्म भारतवर्ष की राजधानी दिल्ली में वि०सं० १७१९ आश्विन शुक्ला चतुर्दशी को तातेड़ गोत्रीय सेठ देवीसिंहजी के यहाँ हआ। आपकी माता का नाम श्रीमती कमलादेवी था। आप बचपन से विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। आपके पिताजी ने आपको अध्ययन करने हेतु आचार्य के पास भेजा। वहाँ आपने अल्प समय में ही अरबी, फारसी, उर्दू, संस्कृत आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया । आचार्य लालचन्दजी जब दिल्ली पधारे तो आप अपने माता-पिता के साथ आचार्य श्री के दर्शनार्थ गये। हृदय को छुनेवाली आचार्य श्री की वाणी ने आपको प्रभावित किया । प्रवचन सुनने के पश्चात् आपके मन में वैराग्य अंकुरित हुआ। धर्म के प्रति बढ़ते आपके आकर्षण को देखकर माता-पिता ने आपको वैवाहिक बन्धनों में बाँधना चाहा, किन्तु अमरसिंहजी की इच्छा संयम के बन्धन में बंधने की थी। आपने माता-पिता से दीक्षा हेतु निवेदन किया, पर निवेदन स्वीकार नहीं हुआ। माता-पिता ने कुछ दिन और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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