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________________ षष्ठ अध्याय आचार्य जीवराजजी और उनकी परम्परा ___ 'लोकागच्छ' की यति परम्परा से निकलकर क्रियोद्धार करनेवाले महापुरुषों में एक नाम श्री जीवराजजी का भी है। कुछ विद्वानों के मत में जीवराजजी ही आद्य क्रियोद्धारक थे। यह माना जाता है कि उन्होंने वि०सं० १६६६ में क्रियोद्धार किया था। इस सम्बन्ध में 'ऋषि सम्प्रदाय का इतिहास' के लेखक मनि मोतीऋषिजी का मन्तव्य कुछ भिन्न है। वे लिखते हैं कि “कुछ सज्जन श्री जीवराजजी को आद्य क्रियोद्धारक कहते हैं। बहुत कुछ खोज और जाँच पड़ताल करने पर भी हमें ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिल सका, जिसके आधार पर पं० मुनि श्री मणिलालजी के इस कथन को सिद्ध किया जा सके। क्रियोद्धारक के रूप में श्री जीवराजजी का किसी प्राचीन स्वपक्षी या विपक्षी विद्वान् ने उल्लेख तक नहीं किया है और न किसी पट्टावली से ही इसका समर्थन होता हाँ! 'श्रीमान् लोकाशाह' में एक स्थल पर यह उल्लेख मिलता है- वास्तविक क्रियोद्धार तो पंन्यास श्री सत्यविजयजी गणि ने तथा लोकागच्छीय यति जीवाऋषि ने किया था। इन दोनों महापुरुषों ने अपने-अपने गुरु की परम्परा का पालन कर शासन में किसी भी प्रकार से न्यूनाधिक प्ररूपणा न कर केवल शिथिलाचार को ही दूर कर उग्र विहार द्वारा जैन जगत पर अत्युत्तम प्रभाव डाला था।"१ उक्त उद्धरण के आधार पर मुनि श्री मोतीऋषिजी का यह मानना है कि यह जीवा जी ऋषि और जीवराज जी एक नहीं हो सकते, पुन: वे यह भी लिखते हैं कि वे गुरु की परम्परा का पालन करनेवाले थे और गुरु की परम्परा का पालन करनेवाला क्रियोद्धारक नहीं हो सकता। किन्तु हमारी दृष्टि में लवजीऋषि को आद्य क्रियोद्धारक सिद्ध करने के लिए वे जीवराजजी को आद्य क्रियोद्धारक स्वीकार नहीं कर रहें हों, किन्तु स्थानकवासी समाज की छ परम्परायें उन्हें अपना आद्य पुरुष स्वीकार कर रही हैं, अत: उनके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। इस भ्रान्ति का एक कारण यह भी हो सकता है कि उन्होंने (मोतीऋषिजी ने) लोकाशाह की परम्परा के आठवें पट्टधर के रूप में जीवाजी को माना है। जीवाजी को जीवराजजी समझ लेने के कारण इस प्रकार की भ्रान्ति हो सकती है, किन्तु आचार्य हस्तीमलजी ने 'जैन आचार्य चरितावली' में जीवाजी को और जीवराजजी को भिन्न व्यक्ति माना है। उनके अनुसार जीवाजीऋषि के शिष्य जगाजी और जगाजी के शिष्य जीवराजजी हुए। दोनों को एक समझ लेने के कारण एक भ्रान्ति 1.ऋषि सम्प्रदाय का इतिहास,मुनि श्री मोतीऋषि,पृष्ठ - 55 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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