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________________ लोकागच्छ और उसकी परम्परा १५९ बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। पाँच वर्ष के स्वल्प समय में आप उच्चकोटि के विद्वान् हो गये । आगमों का तलस्पर्शी अध्ययन किया। जप-तप, संयम-साधना, गुरु-सेवा आदि में आपकी विशेष रुचि थी। निरन्तर १५ वर्षों तक छट्ठ-छट्ठ (बेलेबेले) की तपस्या करते थे। २०वर्ष तक आपने सामान्य साधु जीवन जीआ। वि० सं० १७२४ में पूज्य गुरुदेव का (श्री आसकरणजी का) देहान्त हो गया। तदुपरान्त वि० सं० १७३१ या १७३२ के आस-पास आचार्य श्री वर्द्धमानजी का स्वर्गवास हुआ होगा, क्योंकि वि०सं० १७३०-३१ में बीकानेर में उनके उपस्थित होने का उल्लेख मिलता है। वि०सं० १७३४ में नागौर श्रीसंघ ने बृहद आचार्य महोत्सव के अन्तर्गत आपको आचार्य पद पर आसीन किया। आचार्य बनने के पश्चात् आपने देशदेशान्तर में विहार करते हुए जिनशासन की खूब प्रभावना की । ऐसा उल्लेख मिलता है कि एक बार विहार करते समय मार्ग में मुगल बाहशाह आलमगीर और बीकानेर नरेश अनोपसिंह ने आपका दर्शन किया था। वि० सं० १७६० में आपने कुरुक्षेत्र में चातुर्मास किया जहाँ बादशाह आलमगीर के मन्त्री मुहनाणी शीतलदास और खान आदि बाईस राजकीय व्यक्तियों ने आपके दर्शन किये थे। वि०सं० १७६६ में आप बीकानेर पधारे जहाँ राजकीय सम्मान के साथ आपका विराजना हुआ। इस प्रकार ३८ वर्ष तक गच्छाचार्य पद को सुशोभित करते हुए वि०सं०१७७२ में आपका स्वर्गवास हो गया। आप आचार्य श्री आसकरणजी स्वामी के प्रिय लघु शिष्य और आचार्य वर्द्धमानजी स्वामी के कनिष्ठ गुरुभ्राता थे। आपके २४ शिष्य थे जिनके नाम इस प्रकार हैं श्री गोपालजी स्वामी, श्री आनन्दरामजी स्वामी, श्री भागुरजी स्वामी, श्री महेशजी स्वामी, श्री बखतमलजी स्वामी, श्री रामसिंहजी स्वामी (प्रथम), श्री रामसिंहजी स्वामी (द्वितीय), श्री रामसिंहजी स्वामी (तृतीय), श्री रामसिंहजी स्वामी (चतुर्थ), श्री सुखानन्दजी स्वामी, श्री उदयसिंहजी स्वामी, श्री जगजीवनदासजी स्वामी, श्री धर्मचन्द्रजी स्वामी श्री गुणपालजी स्वामी, श्री प्रेमराजजी स्वामी, श्रीरामसिंहजी स्वामी (पंचम), श्री विधिचन्द्रजी स्वामी, श्री वस्तुपालजी स्वामी, श्री हीराजी स्वामी, श्री धन्नाजी स्वामी, श्री ज्ञानजी स्वामी, श्री भारजी स्वामी, श्री लक्खाजी स्वामी एवं श्री दुर्गादासजी स्वामी। वि०सं०१७१२ में आपके शिष्य मुनि श्री मनोहरदासजी ने आपसे अनुमति लेकर क्रियोद्धार किया था। विशेष विवरण मनोहरदासजी एवं उनकी परम्परा में दिया गया है। नागौरी लोकागच्छ, गुजराती लोकागच्छ के अतिरिक्त लोकागच्छ की एक परम्परा और थी जो उत्तरार्द्ध या लाहोरी लोकागच्छ के नाम से जानी जाती थी। इस परम्परा का प्रभाव उत्तर भारत विशेष रूप से पंजाब में था। इस परम्परा के यति तो वर्तमान काल तक अमृतसर में थे, फिर भी इस परम्परा के सम्बन्ध में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी है। सम्भवत: अगले संस्करण में इसकी पूर्ति करने का प्रयत्न करेंगे। Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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