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________________ १५८ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास गोत्र से सुराना थे । आचार्य श्री नेमिचन्दजी के श्री चरणों में दीक्षित हुए। अपने गुरु के स्वर्गगमन के पश्चात् आप गच्छ के आचार्य बने । वि० सं० १७२४ फाल्गुन मास में नौ दिन के संथारे के साथ आपने स्वर्ग के लिये महाप्रयाण किया। श्री वर्द्धमानजी आपका जन्म राजस्थान के जाखासर नामक ग्राम में हुआ। आपके पिता का नाम श्री सूरजमलजी वैदमूथा तथा माता का नाम श्रीमती लाडमदेवी था। आचार्य श्री आसकरणजी द्वारा संसार की असारता जानने के पश्चात् आपने आर्हती दीक्षा ग्रहण कर ली। दीक्षोपरान्त आगमों व शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। आचार्य श्री आसकरणजी के स्वर्गवास के पश्चात् वि० सं० १७२५ माघ शुक्ला पंचमी के दिन आप गच्छ के आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। वि०सं० १७३० वैशाख शुक्ला दशमी को आप अपने संघ सहित बीकानेर पधारे। बीकानेर से विहार कर विभिन्न क्षेत्रों का स्पर्श करते हुए पुन: बीकानेर पधारे जहाँ सात दिन के संथारे के साथ आप स्वर्गस्थ हुये। यहाँ पट्ट परम्परा में कुछ विरोधाभास नजर आता है। 'दिव्य जीवन' पुस्तक के अनुसार आचार्य आसकरणजी के पश्चात् मुनि श्री सदारंगजी आचार्य बने, जबकि 'पण्डितरत्न श्री प्रेममुनिजी स्मृति ग्रन्थ' के अनुसार आचार्य श्री वर्द्धमानजी के पश्चात् मुनि श्री सदारंगजी आचार्य बने। यह विचारणीय बिन्दु है। तथ्यों के अभाव में कुछ भी कह पाना असंभव है। श्री सदारंगजी आपका जन्म वि०सं० १७०५ में राजस्थान के नागौर में हुआ । आपके पिता जी का नाम श्री भागचन्द्रजी सुराना तथा माताजी का नाम श्रीमती यशोदाबाई था। आप पाँच भाईयों में सबसे छोटे थे । जब आप सात वर्ष के थे तभी आपके मन में वैराग्य -भाव उत्पन्न हो गया था। आपके वैरागी जीवन से एक अद्भुत घटना जुड़ी है। कहा जाता है कि जब आप सात वर्ष के थे तभी आचार्य श्री आसकरणजी स्वामी का अपने शिष्य परिवार के साथ नागौर में पदार्पण हुआ । एक दिन आचार्य श्री प्रवचन दे रहे थे कि सात वर्षीय बालक सदारंग जो अपने चाचा की गोद में बैठे प्रवचन का आनन्द ले रहे थे, चाचा की गोद से उठकर सीधे आचार्य श्री के पाट पर उनके बराबर जा बैठे । इस आकस्मिक घटना ने सभी को स्तब्ध-सा कर दिया। चलता हुआ प्रवचन रुक गया। लोगों ने आपको पाट से उतारना चाहा, किन्तु आपने पाट से नीचे उतरने के लिये स्पष्ट रूप से मना कर दिया और बोले मैं तो यहीं बैठूंगा। इस पर लोगों ने कहा- बालक यह पाट केवल आचार्य श्री के लिए ही है, वही बैठ सकते हैं । किन्तु आपने किसी की न सुनी और गर्व से बोले- 'तो क्या हुआ ? मैं इस पाट पर आचार्य बनकर बैठूंगा। कालान्तर में सात वर्षीय बालक का यह कथन सत्य सिद्ध हुआ । वि०सं० १७१४ में आचार्य श्री आसकरणजी के सान्निध्य में आप दीक्षित हुए। आप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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