SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६४ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास । आचार्य श्री जीतमलजी ___आचार्य श्री सुजानमलजी के पट्ट पर मुनि श्री जीतमलजी विराजित हुए। आप इस परम्परा के चौथे पट्टधर थे। आपका जन्म वि० सं० १८२६ कार्तिक शुक्ला पंचमी को हुआ। आपके पिताजी का नाम श्री सुजानमलजी तथा माता का नाम श्रीमती सुभद्रादेवी था। आपका जन्म-स्थान रामपुरा है। वि०सं० १८३३ में आचार्य श्री सजानमलजी रामपुरा पधारे। आचार्य श्री के व्याख्यानों ने बालक हृदय में वैराग्य की भावना जाग्रत की दिये। बालक हृदय ने माँ से अपनी भावना को व्यक्त किया। मातापिता दोनों ने विभिन्न रूपों से जीतमलजी को सांसारिक प्रलोभन दिये, किन्तु जीतमलजी अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहे। अन्ततः आपने वि०सं० १८३४ में माँ के साथ आचार्य सुजानमलजी के सानिध्य में दीक्षा ग्रहण की। आप संस्कृत, उर्दू, फारसी आदि भाषाओं के जानकार थे। आगम, दर्शन, न्याय, व्याकरण, ज्योतिष आदि का आपको तलस्पर्शी अध्ययन था । एक प्राचीन प्रशस्ति में ऐसा उल्लेख मिलता है कि आपने १३ हजार ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ तैयार की थीं तथा ३२ आगमों को आपने ३२ बार लिखा था। आपके द्वारा लिखित 'आगम बत्तीसी' जोधपुर के अमर जैन ग्रन्थालय में है तथा 'नौ आगम बत्तीसी' इसी सम्प्रदाय की साध्वी श्री चम्पाजी को अजमेर में दी गयी थी, किन्तु इसकी स्पष्ट जानकारी नहीं है कि वर्तमान में वह 'नौ आगम बत्तीसी' किसके पास और कहाँ है। इसके अतिरिक्त 'चन्द्रकलादास', 'शंखनृप की चौपाई', 'कौणिकसंग्राम', 'गुणमाला' आदि आपकी प्रमुख रचनाएँ हैं। आपकी जो रचनाएँ उपलब्ध हो सकी थीं उन्हें आचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजी ने 'अणविन्ध्यामोती' के नाम से संग्रह करके रखा था। 'अणविन्ध्यामोती' अभी अप्रकाशित है। आप एक कुशल चित्रकार भी थे। 'अड्डाई द्वीप का नक्शा', 'त्रसनाड़ी का नक्शा', 'केशीगौतम' की चर्चा का दृश्य, 'परदेशी राजा के स्वर्ग का मनोहारी दृश्य', 'द्वारिकादृश्य', 'भगवान् अरिष्टनेमि की बारात', 'सूर्यपल्ली' आदि आपकी प्रमुख कला कृतियाँ हैं। आपने सूई की नोंक से कागज काटकर कटिंग तैयार की थी और उसमें श्लोक भी लिखे थे। एक पन्ना होने पर भी आगे और पीछे पृथक्-पृथक् श्लोक पढ़े जाते थे। किन्तु अचार्य श्री की ये कृतियाँ किसके पास हैं या नहीं हैं इसकी स्पष्ट जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी है। लेकिन ये चित्र उपाध्याय पुष्की मुनि अभिनन्दन ग्रन्थ में प्रकाशित हैं। वि०सं० १८७१ में जोधपुर के राजा मान सिंह आपके दर्शनार्थ पधारे थे और आपकी ज्ञान-साधना के सामने नतमस्त हो गये थे। आपने 'प्रज्ञापनासूत्र' के वनस्पति पद का सचित्र लेखन किया था, ऐसा उल्लेख मिलता है। आप ज्योतिष के भी अच्छे ज्ञाता थे। ८७ वर्ष की आयु में वि०सं० १९१३ में जोधपुर में आपका स्वर्गवास हो गया। 1. जैन जगत के ज्योतिर्धर आचार्य, आचार्य श्री देवेन्द्रमुनिजी, पृष्ठ - 55 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy