SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५६ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास 'पण्डितरत्न श्री प्रेममुनि स्मृति ग्रन्थ' में वर्णित पट्ट परम्परा में माणकचन्द्रजी को पट्टधर नहीं बताया गया है। अत: कालक्रम में अन्तर आना स्वाभाविक है। एक विचारणीय बिन्दु यह भी है कि आचार्य श्री हीरागरजी और आचार्य श्री रूपचन्द्रजी की भेंट दीक्षा पूर्व लोकाशाह से हुई थी- ऐसा पण्डितरत्न श्री प्रेममुनि स्मृति ग्रन्थ' में बताया गया है, जो प्रमाणिक नहीं लगता, क्योंकि रूपचन्द्रजी का जन्म वि० सं० १५६७ उल्लेखित है जबकि लोकाशाह की स्वर्गवास तिथि वि० सं० १५३३ से १५४१ के बीच मानी गयी है। श्री दीपागरजी आपका जन्म राजस्थान के कोरड़ानिगम ग्राम में हआ। आपके पिता का नाम श्री खेतसीजी एवं माता का नाम श्रीमती धनवती था। आप जाति से ओसवाल और गोत्र से पारिख थे। युवावस्था में आपका सम्पर्क आचार्य श्री रूपचन्द्रजी से हुआ। उनके वैराग्यमूलक धर्मोपदेशों से आपके मन में वैराग्य भावना उत्पन्न हुई । फलत: आप नागौर में आचार्य श्री के सानिध्य में दीक्षित हुए। तत्पश्चात् आचार्य श्री के सानिध्य में रहकर आगमों का तलस्पर्शी अध्ययन किया। आचार्य श्री रूपचन्दजी के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् आप अपने संघ सहित नागौर पधारे। उसी समय नागौर श्रीसंघ ने आपको बड़े महोत्सवपूर्वक गच्छाचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया। आप २७ वर्ष तक गच्छ के आचार्य रहे। ऐसा कहा जाता है कि आप अपने ज्ञान, ध्यान और ओजस्वी प्रवचन से भिण्डर, चित्तौड़, उदयपुर और सादड़ी आदि अनेकानेक गाँवों और नगरों में एक लाख चौरासी हजार साढ़े तीन हजार घरों को प्रतिबोधित किया। चित्तौड़ के प्रसिद्ध दानवीर सेठ भामाशाह और ताराचन्दजी आदि आपके प्रमुख शिष्यों में थे । नागौरी लोकागच्छ में आपके आचार्यत्व में महासती श्री धर्मवतीजी ही सर्वप्रथम आद्या साध्वी और प्रवर्तिनी हुईं जिनके मण्डल ने वहीं लुधियाना के आस-पास बारह कोस में विहार किया। आचार्य श्री लुधियाना से विहार कर पुन: राजस्थान पधारे । विहार करते हुए मेड़तानगर में विराजित हुए। वहीं संथारापूर्वक आपका स्वर्गवास हो गया। ___यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि आचार्य श्री दीपागरजी से सम्बन्धित कोई ऐतिहासिक तिथि उपलब्ध नहीं होती है। श्री वयरागरजी आपका जन्म नागौर निवासी श्री मल्लराजजी के यहाँ हुआ । आपकी माता का नाम श्रीमती रत्नवती था। आचार्य श्री दीपागरजी स्वामी के सानिध्य में आपने दीक्षा ग्रहण की। आगमों का गहन अध्ययन किया। आचार्य श्री दीपागरजी के स्वर्गगमन के उपरान्त आप गच्छ के आचार्य बने । उन्नीस वर्ष तक आप गच्छाचार्य पद पर प्रतिष्ठित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy