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________________ लोकागच्छ और उसकी परम्परा १५५ शिवादेवी थी। आप पाँच भाई थे। आप अपने चाचा के यहाँ दत्तक पुत्र के रूप में रहते थे। बाल्यावस्था में ही आपका विवाह हो गया था। आपकी पत्नी का नाम श्रीमती सरूपा देवी था। आप और हीरागरजी दोनों अभिन्न मित्र थे। आपकी दीक्षा की खबर सुनकर आपके लघुभ्राता श्री पंचायणजी भी अपनी दूसरी शादी छोड़कर आपके साथ दीक्षित हो गये थे। आप तीनों की दीक्षा, जैसा कि पूर्व में बताया जा चुका है कि वि० सं० १५८० में नागौर में आचार्य श्री शिवचन्द्रसूरिजी के सान्निध्य में हुई। किन्तु पं० भवानीशंकर त्रिवेदी द्वारा सम्पादित और सिद्धान्ताचार्य जैनधर्म दिवाकर श्री लालचन्दजी के शिष्य मुनि श्री भजनलालजी द्वारा लिखित पुस्तक 'दिव्य जीवन में मुनि श्री ने रूपचन्दजी स्वामी की दीक्षा-तिथि वि०सं० १५८५ ज्येष्ठ शुक्ला प्रतिपदा मानी है और यह कहा है कि आपकी दीक्षा १८ वर्ष की आयु में हुई थी। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि श्री हीरागर स्वामी, श्री रूपचन्द्रजी स्वामी और पंचायणजी स्वामी की दीक्षा एक साथ नहीं हुई, किन्तु यह समुचित नहीं लगता क्योंकि वि० सं० १५८६ में आचार्य श्री हीरागरजी के साथ बीकानेर में आप भी थे जिस समय आचार्य श्री ने लाख से भी अधिक चोरडिया परिवारों को प्रतिबोधित कर नागौरी लोकागच्छीय श्रमणोपासक बनाया था। आचार्य श्री हीरागरजी के स्वर्गस्थ हो जाने के पश्चात् श्रीसंघ ने आपको नागौरी लोकागच्छ के आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया। आप २९ वर्षों तक आचार्य पद को विभषित करते रहे । पट्टावली प्रबन्ध-संग्रह में प्राप्त उल्लेख से ऐसा लगता है कि आप ही नागौरी लोकागच्छ के संस्थापक थे। आप २९ वर्षों तक आचार्य पट्ट पर रहे। २५ दिनों के संथारे के साथ आपका स्वर्गगमन हुआ। 'दिव्य जीवन' में संथारा ५० दिनों का बताया गया है। स्वर्गगमन-तिथि उपलब्ध नहीं है। विचारणीय बिन्दु यह है कि पट्टावली प्रबन्ध-संग्रह में वि० सं० १५८० में आचार्य श्री हीरागरजी और आचार्य श्री रूपचन्द्रजी को दीक्षित बताया गया है। श्री हीरागरजी का आचार्यत्व काल १९ वर्ष बताया गया है तो दूसरी और आचार्य रूपचन्द्रजी का २९ वर्ष। यदि दीक्षा-तिथि से आचार्य हीरागरजी का दीक्षा काल माना जाता है तो वि०सं० १५९९ तक उनका आचार्यत्व काल होना चाहिए, किन्तु आचार्य रूपचन्द्रजी का आचार्यत्व काल भी वि० सं० १५८० से ही २९ वर्ष बताया गया है। अत: विचारणीय यह है कि क्या एक ही गच्छ में एक ही समय में दो मुनियों को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया? ऐसा तभी सम्भव हो सकता है जब आचार्य श्री हीरागरजी को गच्छाधिपति और आचार्य श्री रूपचन्द्रजी को आचार्य स्वीकार किया जाये। जहाँ तक पट्टावली प्रबन्ध-संग्रह में नागौरी लोकागच्छ की जो पट्ट परम्परा दी गयी है उसमें आचार्य श्री शिवचन्द्रसूरिजी के पट्ट पर श्री माणकचन्दजी को पटासीन बताया गया है, तदुपरान्त आचार्य श्री हीरागरजी को बताया गया है। वहीं दूसरी ओर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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