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________________ १५४ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास दीक्षा ली और क्रियोद्धार किया तो गच्छ का नाम हम अपने और आपके नाम पर 'नागौरी लोकागच्छ' रखेंगे।' यही कारण है कि हीरागरजी आदि मुनियों ने क्रियोद्धार करके अपने गच्छ को लोकागच्छ के नाम से अभिहित किया। किन्तु यह विवरण प्रामाणिक प्रतीत नहीं होता है। इस सन्दर्भ में आगे विवेचन किया गया है। श्री हीरागरजी __ आपका जन्म राजस्थान के नौलाई ग्राम में हुआ। आपकी माता का श्रीमती माणकदेवी तथा पिता का नाम श्री मालोजी था। आप जब तरुणावस्था को प्राप्त हुए तब आपका समस्त परिवार नागौर आ गया। नागौर में ही आप व्यापार करने लगे। जैसा कि ऊपर वर्णित किया गया है कि आचार्य श्री शिवचन्द्रसूरिजी से वि० सं० १५८० में आपने आर्हती दीक्षा प्राप्त की। दीक्षा प्राप्त कर शिथिलाचार के विरुद्ध क्रियोद्धार किया और नागौर श्रीसंघ की ओर से आप एक उग्र तपस्वी के रूप में सम्मानित किये गये। आप जंगलों में रहते थे और पारणावाले दिन तीसरे प्रहर नगर में गोचरी हेतु आते थे और पुन: जंगलों में चले जाते थे। कालान्तर में कोटा में मुनि श्री पंचायणजी अकस्मात् असाध्य रोग से ग्रसित हो गये और वहीं संथारापूर्वक उनका स्वर्गवास हो गया। तत्पश्चात् वि० सं० १५८६ में आप बीकानेर पधारे जहाँ आपने श्री श्रीचन्दजी चोरिड़िया आदि सैकड़ो चोरड़िया परिवारों को प्रतिबोध देकर नागौरी लोकागच्छीय श्रमणोपासक बनाया । वहीं पर आपने अपना चातुर्मास काल व्यतीत किया। तदुपरान्त ग्रामानुग्राम विहार करते हुए आप उज्जैन पधारे जहाँ आपका संथारापूर्वक देहावसान हो गया। आपकी जन्म-तिथि उपलब्ध नहीं होती है, किन्तु यह माना जाता है कि आपकी मुलाकात धर्मप्राण लोकाशाह से हुई थी इस आधार पर आपका जन्म विक्रम की १६ वीं शती के पूर्वार्द्ध में माना जा सकता है। आपकी दीक्षा वि०सं० १५८० में हुई और आप १९ वर्ष तक गच्छाचार्य पद पर प्रतिष्ठित रहे- जैसा कि 'पंडितरत्न प्रेममुनि स्मृति ग्रन्थ' में उल्लेखित है। इस आधार पर आपका स्वर्गवास वि०सं० १५९९ के आस-पास माना जा सकता है। आपके शिष्यों की संख्या अत्यधिक थी जिनमें मे से कुछ शिष्य आपके स्वर्गवास के पश्चात् विहार करते हुये पंजाब पहुँचे तथा पुन: यतिवर्ग में मिल गये और वैद्यक, ज्योतिष आदि से अपनी आजीविका चलाने लगे। श्री रूपचन्द्रजी आप नागौरी लोकागच्छ के संस्थापक और आचार्य श्री हीरागरजी के गुरुभ्राता थे। आपका जन्म राजस्थान के नागौर में वि०सं० १५६७ में हुआ था। आपके पिता सुराना गोत्रीय श्री रयणुशाह थे जो जाति से ओसवाल थे। आपकी माता श्रीमती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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