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________________ लोकागच्छ और उसकी परम्परा कृष्णा द्वितीया को नवानगर में आप आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। वि०सं० १८७६ में जैसलमेर में आप स्वर्गस्थ हुए। श्री मूलचन्दजी ऋषि के बाद आचार्य परम्परा में क्रमश: श्री जगतचन्दजी, श्री रतनचन्दजी और श्री नृपचन्दजी पटासीन हुए। आप तीनों के विषय में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं होती है, केवल नाम ही उपलब्ध होते हैं। नागौरी लोकागच्छ और उसकी परम्परा श्वेताम्बर यति परम्परा में आचार्य श्री शिवचन्द्रसूरिजी जिनका काल वि० सं० १५२९ के आस-पास माना जाता है, के दो प्रमुख शिष्य हुए- श्री देवचन्द्रजी और श्री माणकचन्दजी। इनमें श्री देवचन्द्रजी शिथिलाचारी हो गये और माणकचन्दजी सहजभाव से गुरु के द्वारा बताये मार्ग पर चलते रहे। आचार्य श्री शिवचन्द्रसूरि के गुरु आचार्य श्री कल्याणसूरिजी थे। कालान्तर में आचार्य श्री शिवचन्द्रसूरिजी के सदुपदेशों से प्रतिबोधित होकर श्री हीरागरजी, श्री रूपचन्दजी और श्री पंचायणजी आदि तीनों लोगों ने वि० सं० १५८० ज्येष्ठ शुक्ला प्रतिपदा को नागौर में दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा प्राप्त करने के पश्चात् श्री हीरागरजी आदि तीनों मुनियों ने अपने गुरु के श्रीचरणों में रहकर आगम ग्रन्थों का तलस्पर्शी अध्ययन किया। आगम ग्रन्थों के अध्ययन के पश्चात् तीनों मुनियों के मन में तत्कालीन यति वर्ग में व्याप्त शिथिलाचार के विरुद्ध क्रियोद्धार करके शुद्ध संयम और साध्वाचार का पालन करने का संकल्प जाग्रत हुआ। उधर लोकाशाह की धर्मक्रान्ति का प्रभाव धीरे-धीरे पूरे राजस्थान पर पड़ने लगा। लोकाशाह की धर्मक्रान्ति ने आप तीनों मुनियों के क्रियोद्धार करने के निश्चय को और सुदृढ़ कर दिया। फलत: अपने गुरु श्री शिवचन्द्रसूरिजी से आज्ञा और आशीर्वाद लेकर तीनों मुनियों ने क्रियोद्धार किया और वहीं चन्द्रप्रभ स्वामी के मन्दिर में जाकर आप तीनों ने आगमानुसार श्रमण धर्म और शुद्धाचार का पालन करना प्रारम्भ कर दिया। तदनन्तर मारवाड़, मेवाड़ और मालव प्रदेशों में घूम-घूमकर आप तीनों ने जनकल्याण और धर्म प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया। आपके विशुद्ध आचार और ओजस्वी प्रवचनों को सुनकर अनेक लोग आपके शिष्य हो गये। क्रियोद्धार करने के पश्चात् आपने अपने गच्छ का नाम नागौरी लोकागच्छ रखा। 'नागौरी लोकागच्छ' नामकरण की पृष्ठभूमि में यह है कि दीक्षित होने के पूर्व श्री हीरारारजी की भेंट धर्मप्राण लोकाशाह से हुई थी, जैसा कि 'पण्डितरत्न प्रेममुनिजी स्मृति ग्रन्थ' में उल्लेखित है कि उनके और लोकाशाह के बीच एक समझौता हुआ था जिसका सार इस प्रकार है- ऋषिद्वय द्वारा ग्रन्थों की प्रतिलिपि माँगने पर लोकाशाह ने श्री हीरागरजी और श्री रूपचन्दजी से कहा कि मैं घर जाकर शास्त्रों की प्रतिलिपि करके भेजूंगा और आप उसका कहीं न कहीं उल्लेख करेंगे। इसके प्रत्युत्तर में उनदोनों ने लोकाशाह को वचन देते हुए कहा कि शाहजी यदि ऐसा हुआ तो हम वचन देते हैं कि यदि हमने www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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