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________________ लोकागच्छ और उसकी परम्परा १५१ १६८६ की ज्येष्ठ शुक्ला त्रयोदशी को संघ द्वारा आपको आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया । 'प्रभुवीर पट्टावली' में इस दिन आपका स्वर्गवास लिखा गया है जो समुचित नहीं लगता । श्री शिवजीऋषिजी आचार्य श्री केशवऋषिजी के पट्ट पर श्री शिवजीॠषि विराजित हुए। आपका जन्म वि० सं० १६५४ में नवानगर निवासी श्रीमाली सिंघवी श्री अमरसिंह के यहाँ हुआ। आपकी माता का नाम श्रीमती तेजबाई था । १५ वर्ष की आयु में वि०सं० १६६९ में आपने श्री रत्नसिंहजी के पास दीक्षा ग्रहण की किन्तु आपकी जन्म तिथि, दीक्षा-तिथि आदि के विषय में मत - वैभिन्यता है । प्रभुवीर पट्टावली में आपका जन्म वि०सं० १६३९ में तथा दीक्षा वि०सं० १६६० में दीक्षित होने का उल्लेख है। इसी प्रकार आचार्य पद के विषय में भी दो मत मिलते हैं। एक मत जो प्राचीन पत्र के आधार पर मान्य है, के अनुसार आपकी दीक्षा वि०सं० १६८८ में हुई थी। दूसरे मत के अनुसार जो प्रभुवीर पट्टावली पर आधारित है, के अनुसार आपकी दीक्षा वि० सं० १६७७ में हुई थी। आपके जीवन से अनेकों विशिष्ट घटनायें जुड़ी हैं जिनमें से एक महत्त्वपूर्ण घटना है कि आपके पाटण चातुर्मास काल वि०सं० १६८३ की है। उत्तरोत्तर आपकी कीर्ति को चैत्यवासी सहन नहीं कर सके और आपके विरुद्ध बादशाह को भड़काने के लिये कुछ प्रमुख व्यक्ति को बादशाह के पास दिल्ली भेजा । उस समय दिल्ली के तख्त पर शाहजहाँ आसीन थे । विरोधियों की शिकायत पर बादशाह शाहजहाँ ने शिवजीऋषि को चातुर्मास काल में ही दिल्ली बुलाया। आचार सम्मत नियमानुकूल न होने पर भी चातुर्मास काल में ही शिबजीऋषि दिल्ली पधारे । बादशाह से सुखद वार्तालाप हुआ । शिवजीऋषिजी के उत्तर- प्रत्युत्तर से बादशाह बड़ा प्रभावित और प्रसन्न हुआ । परिणामस्वरूप वि०सं० १६८३ में विजयादशमी के दिन बादशाह द्वारा आपको पालकी सरोपांव के सम्मान से सम्मानित कर पट्टा लिखकर दिया गया जिससे सम्पूर्ण लोकागच्छ में शिथिलाचार का प्रवेश हुआ। 1 वि०सं० १७३४ में ६६ दिन के संथारे के बाद आप स्वर्गस्थ हुए| धर्मसिंहजी आदि आपके १६ शिष्य थे । श्री संघराजऋषिजी आपका जन्म वि०सं० १७०५ आषाढ़ शुक्ला त्रयोदशी को सिद्धपुर के पोरवाल जाति में हुआ था। अपने पिता और बहन के साथ वि०सं० १७१८ में आचार्य श्री शिवजी ऋषि के सान्निध्य में आप दीक्षित हुए। श्री जगजीवनजी के पास आपने शास्त्रों का गहन एवं तलस्पर्शी अध्ययन किया। वि०सं० १७२५ में आपको आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया । ५० वर्ष की आयु में वि० सं० १७५५ फाल्गुन शुक्ला एकादशी के दिन ११ दिन के संथारे के साथ आप समाधिमरण को प्राप्त हुए। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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