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________________ लोकाशाह और उनकी धर्मक्रान्ति १२९ कूट कहे गये हैं, उनमें कहीं भी सिद्धायतन कूट का वर्णन नहीं है । दूसरे अन्य पर्वतों पर जहाँ सिद्धायतन कूट कहे गये हैं वहाँ यह कहा गया है कि इनका वर्णन सिद्धायतन कूट के समान समझना चाहिए । जब सिद्धायतन कूट ही नहीं है तो फिर वहाँ जाकर शाश्वत जिन-प्रतिमा का वर्णन कैसे सम्भव होगा? पुनः चैत्य शब्द से किसका वन्दन किया गया, क्योंकि अरिहंत तो जहाँ होते हैं वहीं उन्हें वन्दन किया जाता है। उदाहरण के रूप में 'अन्तगड़दशा' में सुदर्शन श्रावक अपने घर में रहकर अथवा जंगल के अन्दर मार्ग में महावीर स्वामी को वन्दन करता है। भगवती के अन्दर भी यह कहा गया है कि मैं वहाँ जाकर भगवान् को वन्दन करूँगा । अन्यत्र भी आगमों में भगवान् की विद्यमानता में भी उन्हें चैत्य शब्द से वन्दन किया गया है। अतः उसने मानुषोत्तर पर्वत पर रहे हु अरहंतों को वन्दन किया, न कि अरहंत चैत्यों को वन्दन किया । यदि कोई कहता है कि नंदीश्वर पर्वत पर जाकर चैत्य शब्द से किसको वन्दन किया जाता है तो उत्तर में यह कहा जा सकता है कि जिस प्रकार मानुषोत्तर पर्वत पर जाकर चैत्य शब्द से प्रतिमा नहीं अपितु सामान्य रूप से अरहंतों को वन्दन किया, उसी प्रकार नंदीश्वर द्वीप में भी इसका वही अर्थ होगा । मानुषोत्तर पर्वत पर जिन शब्दों से वन्दन किया गया है उन्हीं शब्दों से नंदीश्वर द्वीप में भी वन्दन किया गया है । यहाँ शब्दों में कोई अन्तर नहीं है । यदि मानुषोत्तर पर्वत पर शाश्वत प्रतिमायें नहीं हैं तो फिर दूसरे स्थानों के सम्बन्ध में प्रत्युत्तर की क्या अपेक्षा है ? १२. बारहवें बोल में लोकाशाह लिखते हैं कि कुछ लोग यह कहते हैं कि भगवती में चमरेन्द्र के अधिकार में अरहंत चैत्य की शरण में जाने का उल्लेख है। दूसरे शब्दों में जिन - प्रतिमा के शरण में जाने का उल्लेख है । इसके प्रत्युत्तर में लोकाशाह कहते हैं कि यदि जिन - प्रतिमा के शरण में जाने से ही काम होता है तो फिर चमरेन्द्र को भरतखण्ड में आने की क्या आवश्यकता थी? उसके भवन में भी शाश्वती जिन - प्रतिमा रखी हुई थी । सौधर्मेन्द्र ने भी जब वज्र फेंका उस समय यही विचार किया अरहंत भगवान् अनगार की अशातना होगी । यहाँ भी जिन - प्रतिमा की अपेक्षा भगवान् के लिए ही चैत्य शब्द का प्रयोग किया गया है । १३. तेरहवें बोल में लोकाशाह लिखते हैं कि 'औपपातिक' में 'अरहंत चेइयाणि' से अरहंत की प्रतिमा का उल्लेख हुआ है। इसके प्रत्युत्तर में लोकाशाह लिखते हैं कि 'अरिहंत चेइयाणि' से भी अरहंत शब्द ही ग्रहण करना चाहिए। इस पर यदि किसी को यह आपत्ति हो कि जब अरहंत और अरहंत चैत्य का अलग-अलग उल्लेख किया गया है तो फिर इनका एक ही अर्थ कैसे लिया जा सकता है? इसके प्रत्युत्तर में लोकाशाह कहते हैं कि एक शब्द के अनेक पर्यायवाची शब्द होते हैं । उदाहरण के रूप में 'सूत्रकृतांग' में श्रमण शब्द के १७ (सतरह) पर्यायवाची शब्द दिये हुये हैं । मात्र यही नहीं स्वयं वृत्तिकार ने भी अरहंत चैत्य का अर्थ अरहंत ही किया है। चैत्य शब्द से आगमों में अनेक स्थानों पर अरहंत ही अर्थ ग्रहण किया गया है। यदि कोई यह कहे कि वृत्तिकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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