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________________ १३० स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास अस्पष्टता के कारण ही वहाँ चैत्य शब्द का अर्थ नहीं किया है। यदि अस्पष्टता के कारण चैत्य शब्द का अर्थ नहीं किया तो अरहंत शब्द के अर्थ करने की क्या आवश्यकता थी? सुज्ञजन इस पर विचार करें । १४. कुछ लोगों का यह कहना है कि 'उपासकदशांग' में आनन्द श्रावक ने जिन - प्रतिमा की आराधना की है। इसके प्रमाण में वे यह कहते हैं कि आनन्द ने यह स्पष्ट रूप से कहा था कि अन्य चैत्यादि में आराधना करना मुझे कल्प्य नहीं है। इसका मतलब यह हुआ कि जिन-चैत्य में आराधना करना उसने कल्प्य माना था। इसके प्रत्युत्तर में लोकाशाह का कहना है कि 'नो कप्पइ' शब्द से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है । हमारा सम्बन्ध 'कप्पइ' शब्द से है और 'कप्पइ' के सम्बन्ध में आलापक में कहीं भी जिन - प्रतिमा का उल्लेख नहीं है । सुज्ञजन इस पर विचार करें। १५. 'प्रश्नव्याकरण' के तीसरे संवरद्धार में 'चेइअङ्कं निज्जरठ्ठे अट्टमं' ये शब्द आये हैं । यहाँ कुछ लोग इसका अर्थ यह करते हैं कि साधु भी प्रतिमा की वैयावृत्य करें । इस सम्बन्ध में लोकाशाह कहते हैं कि यहाँ चैत्य शब्द का अर्थ चेतन प्राणी या ज्ञानार्थी है, क्योंकि इस अधिकार में यह कहा गया है कि साधु गृहस्थों के घर से आहारपानी लाकर के अन्य साधुओं को दे अर्थात् उनकी सेवा करे । इसमें साधु के द्वारा गृहस्थ के घर से क्या-क्या ग्राह्य है स्पष्ट रूप से अनेक वस्तुओं के नाम दिये गये हैं, लेकिन कहीं भी प्रतिमा का नाम नहीं आया है । यहाँ क्या लेना है इसकी चर्चा है, प्रतिमा का कोई उल्लेख नहीं है? " १६. सोलहवें बोल में लोकाशाह स्पष्ट रूप से कहते हैं कि 'प्रश्नव्याकरण' के प्रथम आस्रव-द्वार में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि व्यक्ति घर, आवास, प्रतिमा, प्रासाद, सभागार आदि के निर्माण के निमित्त पृथ्वीकाय जीवों की हिंसा करता है । इसका स्पष्ट अर्थ है कि प्रतिमा एवं प्रासाद के निमित्त पृथ्वीकाय जीवों की हिंसा को भगवान् ने अधर्म का द्वार बताया है । विज्ञजन विचार करें 1 कुछ लोगों का कहना है कि इस आलापक में यह कहा गया है कि जो इस प्रकार के कार्य करते हैं वे मंदबुद्धि के होते हैं और मंदबुद्धि का अर्थ मिथ्यात्वी है । अतः मिथ्यात्वी के द्वारा प्रतिमा आदि के निमित्त पृथ्वीकाय की हिंसा करना अधर्म का द्वार है, सम्यक्-दृष्टि का नहीं । किन्तु, मंदबुद्धि का मिथ्यात्वी अर्थ शास्त्र के अनुकूल नहीं है, क्योंकि 'प्रश्नव्याकरण' के ही पाँचवें आस्रवद्धार में जो परिग्रह का संचय करते हैं उन सभी को यथा-चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, अनुत्तर विमान के देव आदि सभी को मंदबुद्धि कहा गया है । अत: मंदबुद्धि का मिथ्यात्वी अर्थ उचित नहीं है । इस प्रकार सम्यक् - दृष्टि के द्वारा भी प्रतिमा आदि के लिए की गयी पृथ्वीकाय जीवों की हिंसा को अधर्म ही माना गया है। विज्ञजन विचार करें ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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