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________________ १२८ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास १०. जो लोग प्रतिमा-पूजन के सन्दर्भ में सूर्याभदेव का उदाहरण देते हैं उनके प्रत्युत्तर में लोकाशाह लिखते हैं कि सूर्याभदेव ने भी मोक्ष के लिए जिन-प्रतिमा नहीं पूजी। उन्होंने जिस प्रतिमा की पूजा की वह दूसरे भव में हित और सुख मिलने के लिए की अर्थात् उन्होंने प्रतिमा-पूजन सांसारिक उद्देश्य से किया, न कि मोक्ष के उद्देश्य से । इसके प्रमाण में लोकाशाह आगम का निम्न पाठ प्रस्तुत करते हैं'एयं मे पेच्चा हिताते सुहाए खमाए णिस्सेसाय आणुं गाम्मिताए भविस्सइ।' इसमें प्रतिमा-पूजन का उद्देश्य परलोक का हित या सुख बताया गया है, मोक्ष नहीं । जबकि भगवती आदि आगमों में जहाँ भी भगवान् महावीर के वन्दन सम्बन्धी पाठ हैं वहाँ पर 'पेच्चा' शब्द न होकर के 'पच्छा पुराए' शब्द है। इससे यह सिद्ध होता है कि सूर्याभदेव ने जो जिन-प्रतिमा की पूजा की वह मोक्ष के लिए नहीं थी, बल्कि संसार में ही अगले जीवन के हित और सुख के लिए थी । जहाँ संयम या चारित्र आदि की चर्चा की गयी है वहाँ पूर्व एवं पश्चात् हित एवं सुख का पाठ आया है। वहाँ परलोक के हित एवं सुख का पाठ नहीं आया है । दोनों स्थानों पर जो ‘पेच्चा' और 'पूव्विम पच्छा' शब्दों का अन्तर है उसे समझना चाहिए । इसी प्रकार सुधर्मा सभा में जहाँ तीर्थङ्करों की दाड़े रखी हुई हैं वहाँ देवता मैथुन का सेवन नहीं करते । इस बात के आधार पर यदि कोई यह कहे कि दाड़ का वन्दन, पूजन, सम्यक्त्व के लिए है, तो यह मानना भी उचित नहीं है । 'स्थानांग' के अन्दर तीन प्रकार के व्यवसाय (क्रियायें) कहे गये हैं- धार्मिक, अधार्मिक और धार्मिक-अधार्मिक। इसमें धार्मिक क्रियायें साधु की मानी गयी हैं, धार्मिक-अधार्मिक क्रियायें गृहस्थ की मानी गयी हैं, शेष सभी की क्रियायें अधर्म कही गयी हैं । इसका तात्पर्य यह हुआ कि देवताओं के द्वारा की जानेवाली क्रियायें धर्म क्रियायें नहीं हैं और धर्म-अधर्म भी नहीं हैं। अतः सूर्याभदेव के द्वारा जिन-प्रतिमा का पूजन धार्मिक क्रिया के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। पुन: 'स्थानांग' में दस प्रकार के धर्म का उल्लेख करते हुए ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म आदि की भी चर्चा है । वस्तुतः इन सभी को आध्यात्मिक उद्देश्य से धर्म नहीं कहा गया है। ये मात्र लोक-व्यवहार हैं। अत: सूर्याभदेव के द्वारा धार्मिक उद्देश्य से जिन-प्रतिमा का पूजन किया गया है- ऐसा स्वीकार नहीं किया जा सकता है। लोकाशाह उसे मात्र लोक-व्यवहार मानते हैं। ११. ग्यारहवें बोल में लोकाशाह लिखते हैं कि कुछ लोग यह प्रश्न करते हैं कि जिन मुनियों को विद्याचारण और जंघाचारण लब्धि प्राप्त होती है, वे उस लब्धि के द्वारा मानुषोत्तर पर्वत पर जाकर चैत्य शब्द से कथित प्रतिमा का वन्दन करते हैं। इसका आपके पास क्या प्रत्युत्तर है? प्रत्युत्तर में लोकाशाह कहते हैं कि मानुषोत्तर पर्वत पर चार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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