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________________ में 'निरतिशय नानेश', 'प्रवर्तक श्री अम्बालालजी अभिनन्दन ग्रन्थ' व 'श्री गुरु गणेश जीवन दर्शन' आदि ग्रन्थ हमारे आधारभूत रहे। इसी प्रकार जीवराज जी परम्परा के इतिहास में मरुधरकेसरी मुनि श्री मिश्रीमलजी म० अभिनन्दन ग्रन्थ' एवं 'मुनि द्वय अभिनन्दन ग्रन्थ' सहायक यद्यपि हमने इस इतिहास ग्रन्थ को ई० सन् २००२ तक अद्यतन बनाने का प्रयास किया है फिर भी सामग्री की अनुपलब्धता एवं ग्रन्थ शीघ्रता से पूर्ण करने की भावना के कारण कुछ सूचनायें हम नहीं दे पाये है। साथ ही ग्रन्थ की पृष्ठ संख्याओं की सीमितता के कारण भी हमें आचार्यों और मुनिवृन्दों के जीवन सम्बन्धी विवरण को अत्यन्त संक्षिप्त करना पड़ा है। इसके लिए हम निश्चय ही क्षमाप्रार्थी हैं। प्रस्तुत कृति में समकालीन मुनिवृन्दों के नाम देकर ही हमें संतोष करना पड़ा। यद्यपि हम यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि यदि हमें मुनिजनों का सहयोग मिला और उनके द्वारा हमें अपेक्षित जानकारियाँ उपलब्ध होंगी तो हम अगले संस्करण में निश्चित ही उन्हें समावेशित करने का प्रयत्न करेंगे। __स्थानकवासी जैन सम्प्रदाय के इस इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण कमी यह रही है कि हम साध्वीवृंद का उल्लेख इसमें नहीं कर पाये हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि जिस प्रकार आचार्यों और किसी सीमा तक मुनियों की पट्ट परम्परा एवं शिष्य परम्परा के जो संकेत उपलब्ध होते हैं, उनका साध्वियों के सन्दर्भ में प्राय: अभाव ही है। हम स्थानकवासी समाज के प्रबुद्ध साध्वी वर्ग से यह अपेक्षा रखते हैं कि यदि वे अपनी-अपनी पूर्व परम्परा का विवरण लिखकर भेजेंगी तो निश्चय ही स्थानकवासी जैन सम्प्रदाय के इतिहास का एक अलग खण्ड साध्वी परम्परा से सम्बद्ध होगा। यदि हमें इसकी सूचनायें और सहयोग न मिला तो हमारी योजना स्थानकवासी परम्परा की प्रमुख जैन साध्वियों तक ही सीमित रह जायगी। यह निश्चित ही गौरव का विषय है कि स्थानकवासी परम्परा में साध्वीवृंद का अवदान बहुत अधिक है, अत: अब यह समय आ गया है कि हम उनके अवदानों का सम्यक् मूल्यांकन कर उन्हें समाज के सामने प्रस्तुत करें। स्थानकवासी जैन समाज निश्चित ही एक क्रान्तिकारी समाज है। इसका महत्त्वपूर्ण अवदान यह है कि इसने धर्म को कर्मकण्ड के कीचड़ से निकालकर अपने सहज और शुद्ध स्वरूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। धर्म के आध्यात्मिक पक्ष पर उसका अधिक बल रहा है । उसने मन्दिर और मूर्तिपूजा का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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