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________________ लोकाशाह और उनकी धर्मक्रान्ति ११३ पंडितजी ने यह निश्चितता व्यक्त की है कि लोकाशाह पात्र भी रखते थे और भिक्षाचर्या भी करते थे। परन्तु उस युग के साधुओं में प्रचलित उच्चकुल की ही भिक्षा लेने की प्रथा का परित्याग उन्होंने कर दिया था और जहाँ-तहाँ से भिक्षा लेना प्रारम्भ कर दिया था । उनकी यह रीति प्राचीन प्रथा के अनुकूल थी । सम्भवतः उस युग के समाज के विरोध के कारण भी उनको ऐसा करना पड़ा। इन सबमें सत्य क्या है? यह कह पाना कठिन है लेकिन इतना सुनिश्चित है कि उन्होंने जो धर्मक्रान्ति की उसका उन्हें समाज से अनुमोदन प्राप्त हुआ और अनेक लोग उस मार्ग पर चलने के लिये तत्पर बने । चाहे उन्होंने दीक्षा ली हो या न ली हो, किन्तु यह सुनिश्चित सत्य है कि वि०सं० १५३१ में उनकी प्रेरणा से कुछ लोगों ने मुनि दीक्षा स्वीकार की थी। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि धर्मक्रान्ति के समय जब लखमसी,भाणाजी आदि ने दीक्षा ग्रहण की उस समय तो लोकाशाह ने दीक्षा ग्रहण नहीं की, किन्तु बाद में ज्ञानमुनिजी म० के शिष्य श्री सोहनजी म० से आपने मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी वि०सं० १५३६ को दीक्षा ग्रहण कर ली थी। वैसे इस प्रसंग को लेकर परस्पर विरोधी मत प्राप्त होते हैं। चाहे उन्होंने दीक्षा ली हो या न ली हो, किन्तु उनका जीवन साधनामय था और यदि वे गृहस्थ जीवन में रहे तो भी जल कमलवत अलिप्त भाव से ही रहे होंगे - ऐसा माना जा सकता है । लोकाशाह के सम्बन्ध में हमें जो भी जानकारियाँ मिलती हैं वे इतना तो सिद्ध करती हैं कि लोकाशाह ने एक धर्मक्रान्ति की थी। उस काल में रूढ़िग्रस्त और कर्मकाण्डों में लिप्त जैनधर्म को उन्होंने मुक्त किया था। ऐसा कहा जाता है कि उनके जीवनकाल में ही उनके लगभग ४०० शिष्य और हजारों की संख्या में श्रावक हो गये थे। जिस प्रकार लोकाशाह की जन्म-तिथि, दीक्षा-तिथि और दीक्षा ग्रहण करने के सम्बन्ध में मतभेद है उसी तरह से उनके स्वर्गवास के विषय में भी विभिन्न मत देखे जाते हैं । यति भानुचन्द्रजी का मत है कि लोकाशाह का स्वर्गवास वि०सं०१५३२ में हुआ। इसके विपरीत लोकागच्छीय यति श्री केशवजी उनका स्वर्गवास वि० सं० १५३३ मानते हैं । 'वीर वंशावली' में उनका स्वर्गवास वि०सं० १५३५ माना गया है । जबकि 'प्रभूवीर पट्टावली' के लेखक श्री मणिलालजी म० के अनुसार उनका स्वर्गवास वि०सं० १५४१ में हुआ होगा। इस प्रकार से उनके स्वर्गवास तिथि को लेकर मतभेद है फिर भी इतना निश्चित है कि उनका स्वर्गवास वि०सं०१५३३ से वि०सं० १५४१ के बीच माना गया है। उनके स्वर्गवास के विषय में यह प्रवाद भी प्रचलित है कि अलवर में उनके विरोधियों के द्वारा उन्हें भोजन में विष देकर उनकी जीवन लीला को समाप्त कर दिया गया। किन्तु जब तक कोई भी पृष्ट प्रमाण उपलब्ध न तब तक इनमें सत्य क्या है यह कहना कठिन है। साथ ही यह भी सत्य है कि उस समय साम्प्रदायिक आवेशों के परिणामस्वरूप विरोधी पक्ष की हत्या कर देना कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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