SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११२ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास हेमचन्द्रजी की पट्टावली में ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि १५२ संघवियों सहित १५३ व्यक्तियों ने पाटण में दीक्षा ली थी । ३४ इसमें लोकाशाह के दीक्षा लेने और उनकी तीन मास की दीक्षा पर्याय और तीन दिन के अनशन के द्वारा देवलोक में उत्पन्न होने का उल्लेख भी है । इसमें दीक्षा की तिथि वि० सं० १४२८ बतायी गयी है जो असंभव-सी प्रतीत होती है, क्योंकि वि० सं० १४२८ में लोकाशाह के होने का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता है । ३५ विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार से प्राप्त पत्र में लोकागच्छ की उत्पत्ति वि० सं० १५३३ में बतायी गयी है तथा लखमसी के द्वारा वि०सं० १५३० में दीक्षित होने का उल्लेख है । इसमें लोकाशाह के द्वारा भी दीक्षा ग्रहण करने का उल्लेख है । आचार्य हस्तीमलजी ने खम्भात के संघवी पोल भण्डार में उपलब्ध पट्टावली के आधार पर यह माना है कि वि०सं० १५३१ में लोकाशाह ने स्वयं दीक्षा ग्रहण की थी। इस प्रकार हम देखते हैं कि उनके स्वयं के दीक्षा ग्रहण करने के सम्बन्ध में विभिन्न मत पाये जाते हैं । कुछ लोगों का मानना है कि उन्होंने दीक्षा ग्रहण की थी जबकि कुछ लोगों का कहना है कि अपनी वृद्धावस्था के कारण उन्होंने स्वयं दीक्षा नहीं ली थी । पं० दलसुख भाई मालवणिया के अनुसार भी लोकाशाह ने किसी को अपना गुरु बनाये बिना ही भिक्षाचारी प्रारम्भ कर दी थी उन्होंने अपने लेख 'लोकाशाह और उनकी विचारधारा' में लिखा है— लोकाशाह के लिए यह सम्भव ही नहीं था कि जिस परम्परा के साथ में विरोध चल रहा हो, उसी में से किसी को गुरु स्वीकार करके उससे दीक्षा ग्रहण करते । इसके अतिरिक्त उस परम्परा का कोई भी यति उन्हें दीक्षा दे, इसकी भी सम्भावना बहुत कम थी । अपना लिखने का काम छोड़कर वि०सं० १५०८ में जिस यति परम्परा का उन्होंने विरोध किया उसी के पास दीक्षा ग्रहण करना, कथमपि सम्भावित नहीं जान पड़ता । परन्तु यह सत्य है कि लोकाशाह ने गृहत्याग किया था और भिक्षाजीवी भी बने थे । ३६ उनके वेष के विषय में उनके समकालीन धेलाऋषि ने उनसे पूछा था कि आप जैसा चोल पट्टक पहनते हैं वैसा किस सूत्र में लिखा है ? इस सन्दर्भ में पं० मालवणियाजी का मानना है कि लोकाशाह तत्कालीन परम्परा के श्वेताम्बर साधु वर्ग में प्रचलित रीति के अनुसार चोलपट्टक नहीं पहनते थे । सम्भव है उनका चोलपट्टक पहनने का ढंग आज के स्थानकवासी साधु जैसा रहा होगा। मुनि पुण्यविजयजी के संग्रह की पोथी सं० ७५८८ पत्र सं०-८६ तथा पोथी नं० २३२८ के आधार पर पंडितजी ने लिखा हैलोकाशाह ने स्वयं एक चोलपट्टक और दूसरी ओढ़ने की चादर - ये दो वस्त्र रखे होंगे। पात्र भी था। इनके सिवा अन्य जो भी उपकरण उस युग के साधु सम्प्रदाय में प्रचलित थे उनको ग्रहण नहीं किया होगा। पोथी सं० २३२८ के ही उद्धरण के आधार पर For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy