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________________ ११४ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास आश्चर्यजनक बात नहीं थी। फिर भी, सत्य क्या है? इसके विषय में अभी गहन शोध की आवश्यकता है । जहाँ तक लोकाशाह की आयु का प्रश्न है तो यदि हम उनका जन्म वि०सं० १४७५ और स्वर्गवास वि० सं० १५४१ में मानते हैं तो उनकी सर्व आयु ६६ वर्ष की मानी जायेगी । जहाँ तक हमारी जानकारी है लोकाशाह की कृतियों के रूप में 'लोकाशाह के चौतीस बोल', 'अट्टावन बोल की हुंडी', 'तेरह प्रश्न और उनके उत्तर' तथा उनके द्वारा लिखित 'किसकी परम्परा' (केहनी परम्परा) आदि सामग्री ही उपलब्ध होती है। 'अट्ठावन बोलों की हुंडी' में लोकाशाह ने मूल आगमों के अतिरिक्त नियुक्ति, भाष्य और चूर्णियों के जो सन्दर्भ दिये हैं उनसे ऐसा लगता है कि उनका ज्ञान व्यापक था, किन्तु अपने मूल लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए, साहित्य रचना में ज्यादा रुचि नहीं ली होगी। क्योंकि अट्ठावन बोल और चौतीस बोल में 'आचारांग', 'सूत्रकृतांग', 'स्थानांग', 'दशाश्रुतस्कन्ध', 'भवगती', 'ज्ञाताधर्मकथांग', 'राजप्रश्नीय, 'अनुयोग्द्वार', 'नन्दीसूत्र', 'उत्तराध्ययन', 'औपपातिक', 'जीवाभिगम', 'उपासकदशा', 'प्रश्नव्याकरण', 'दशवैकालिक', 'प्रज्ञापना', 'आचारांगनियुक्ति', 'आचारांगवृत्ति', 'विपाक', 'उत्तराध्ययनचूर्णि तथा वृत्ति, 'आवश्यकनियुक्ति', 'बृहत्कल्पवृत्ति' तथा 'निशीथचूर्णि' आदि में से अनेक पाठों का उद्धरण देकर विस्तृत चर्चा की गयी है । इससे ऐसा ज्ञात होता है कि लोकाशाह केवल लिपिक नहीं थे, बल्कि उन्हें शास्त्रों का विस्तृत ज्ञान था। लोकाशाह की अपनी कृतियों की अपेक्षा भी, उनके मत के खण्डन में उनके समकालीन और परवर्ती लेखकों के द्वारा बहत कुछ कहा गया है। उनके विरोध में लिखी गयी कृतियों में 'लुंकामत प्रतिबोधकुलक' एक प्राचीन प्रति है । इस कृति में पंन्यास हर्षकीर्ति का उल्लेख है जिन्होंने वि०सं० १५३० में धंधुकिया में चार्तुमास किया था । इस कृति की हस्तलिखित प्रतिलिपि लालभाई दलपत इण्डोलॉजिकल इस्टीट्यूट, अहमदाबाद, प्रति सं० ५८३७ के रूप में उपलब्ध है । इससे यह सिद्ध होता है कि उस काल में लोकाशाह का मत केवल प्रचलित ही नहीं हुआ था, अपितु उसका व्यापक प्रचार भी हो चुका था और उनके अनुयायियों की संख्या भी पर्याप्त थी। पूर्व चर्चा में हमने देखा कि लोकागच्छ की स्थापना वि०सं० १५३१ में हुई । इसका तात्पर्य इतना ही है कि लोकागच्छ का नामकरण अथवा उस गच्छ में मुनि दीक्षा इस काल में हुई होगी, किन्तु लोकाशाह की मान्यताओं का प्रसार तो उसके पहले ही हो चुका था। हमने यह भी देखा कि कुछ लेखकों ने लोकाशाह की धर्मक्रान्ति की तिथि वि०सं० १५०८ या १५०९ उल्लेखित की है । वह भी इस अर्थ में सत्य है कि लोकाशाह ने उस युग की यति परम्परा के विरुद्ध अपने क्रान्ति के स्वर वि०सं०१५०८ या १५०९ से ही मुखर कर दिये थे । उन्हें अपने मत को स्थापित करने में कम से For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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