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________________ किन्तु प्रशासनिक एवं अन्य अकादमीय कार्यों की व्यतस्ता इतनी रही कि यह योजना मूर्त रूप नहीं ले सकी, किन्तु पार्श्वनाथ विद्यापीठ से सेवानिवृत्ति के पश्चात् डॉ. विजय कुमार के साथ मिलकर इस कार्य को पूरा करने का निश्चय किया। पूजनीय श्री मणिभद्रजी 'सरल' की प्ररेणा से इस कार्य ने गति पकड़ी और आज यह ग्रन्थ मूर्त रूप में प्रकाशित हो रहा है । स्थानकवासी जैन संघ के इतिहास लेखन में सबसे महत्त्वपूर्ण कठिनाई यह रही कि उनके सम्बन्ध में अभिलेखीय साक्ष्यों का प्राय: अभाव रहा, जबकि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा के अभिलेखीय साक्ष्य प्राचीन काल से ही विपुल मात्रा में उपलब्ध होते हैं। स्थानकवासी सम्प्रदाय के इतिहास में मात्र साहित्यिक साक्ष्य ही एक मात्र आधार हैं। उसमें भी कठिनाई यह है कि प्राचीन परम्परा में ग्रन्थ मुद्रण और प्रकाशन का भी निषेध रहा, अत: साहित्यिक साक्ष्य के रूप में जो सामग्री उपलब्ध हो सकती थी, वह प्रायः हस्तलिखित भण्डारों में ही संरक्षित है। दुर्भाग्य यह भी रहा कि स्थानकवासी परम्परा के हस्तलिखित भण्डारों की सूचियाँ भी प्राय: अनुपलब्ध हैं। ग्रन्थ प्रशस्तियों तक पहुँचना तो और भी कठिन कार्य है । यदि इन सब को प्रामाणिक रूप से आधार बनाकर लेखन कार्य किया जाय तो सम्भवत: वह एक व्यक्ति अपने जीवन काल में पूरा न कर पाये । जहाँ तक हमारी जानकारी है स्थानकवासी परम्परा के प्रारम्भिक इतिहास को प्रस्तुत करने का प्रथम प्रयास श्री वाडीलाल मोतीलाल शाह ने आज से लगभग ५० वर्ष पूर्व 'ऐतिहासिक नोंध' नाम से एक लघु-पुस्तिका प्रकाशित की थी। प्रारम्भ में तो वह प्रति भी हमें अनुपलब्ध रही, यद्यपि जब यह ग्रन्थ अपनी समाप्ति की ओर है तब वह लघु पुस्तिका प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर के पुस्तकालय में उपलब्ध हई। किन्तु उसमें कुछ सामान्य जानकारियों के अतिरिक्त कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं हो सकी। यह हमारा सद्भाग्य भी था कि एक दिन पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी के संग्रहों को खोजते-खोजते हमें 'स्थानकवासी मुनि कल्पद्रुम' उपलब्ध हुआ जो आज से लगभग १०० वर्ष पूर्व लिथों प्रेस से छापा गया था। इसका एक लाभ हमें यह हुआ कि स्थानकवासी परम्परा के उद्भवकाल से लेकर आज से १०० वर्ष पूर्व तक की एक विश्वसनीय सूची प्राप्त हो सकी। हमारे इस कार्य में दूसरा प्रमुख सहयोगी तत्त्व रहा 'समग्र जैन चातुर्मास सूची' उसके माध्यम से हमें स्थानकवासी परम्परा की विभिन्न शाखाओं और उप-शाखाओं के वर्तमान कालीन नाम हमें उपलब्ध हो सके। इस इतिहास लेखन में तीसरा महत्त्वपूर्ण सहयोगी पक्ष स्थानकवासी परम्परा की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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