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अपनी बात
किसी भी धर्मसंघ का उस देश की संस्कृति को क्या अवदान है, यह समझने के लिए उसके इतिहास का ज्ञान आवश्यक है। इतिहास न केवल मृत भूत के सम्बन्ध में सूचनायें देता है, अपित् वह वर्तमान का प्ररेक और भविष्य को सवाँरने का काम भी करता है। इतिहास का कार्य केवल भूत की घटनाओं को उल्लेखित करना ही नहीं है, अपितु उनसे शिक्षा प्राप्त कर भविष्य को सवाँरना भी है। फिर भी हमारा यह दुर्भाग्य ही रहा है कि भारतीय मनीषियों में इतिहास लेखन के प्रति रूचि अल्प ही रही। बृहद् हिन्दू परम्परा में पुराणों के रूप में तथा जैन परम्परा में चरित काव्यों और प्रबन्धों के रूप में इतिहास लेखन का कुछ प्रयत्न तो हुआ, किन्तु उनमें चामत्कारिक घटनाओं और चरित्रनायक को महिमामण्डित करने की भावना का इतना अधिक बाहुल्य रहा कि ऐतिहासिक सत्यों पर इतनी परतें चढ़ गईं की उसे खोज निकालना एक कठिन कार्य हो गया। दूसरी कठिनाई यह रही कि वैयक्तिक इतिहास को प्रस्तुत करने का कार्य तो किसी सीमा तक हुआ, किन्तु सामुदायिक या संघीय इतिहास के प्रति उपेक्षा का भाव ही रहा। यही कारण था कि आज से लगभग पचास वर्ष पूर्व जैन विद्या के मनीषियों के मन में यह भावना जाग्रत हुई कि जैन साहित्य, संस्कृति और समाज का एक प्रामाणिक इतिहास लिखा जाये। इस हेतु पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी को दायित्व सौंपा गया और उसने 'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास' के सात खण्ड और 'हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास' के चार खण्ड प्रकाशित किये। साहित्य के इतिहास के प्रकाशन की परम्परा अभी भी निरन्तर चल रही है, किन्तु जैन संघ या जैन सम्प्रदायों के इतिहासों के प्रकाशन का प्रश्न उपेक्षित ही रहा। मैंने जब सन् १९७९ में पार्श्वनाथ विद्यापीठ के निदेशक का दायित्व ग्रहण किया तो मेरे मन में यह बात उठी कि पार्श्वनाथ विद्यापीठ को जैन संघ के इतिहास के प्रकाशन का दायित्व भी स्वीकार करना चाहिए। इसी क्रम में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक गच्छों के इतिहास के लेखन का दायित्व पार्श्वनाथ विद्यापीठ के प्रवक्ता डॉ० शिवप्रसादजी को दिया गया। स्थानकवासी जैन संघ का इतिहास के लेखन का दायित्व मैंने स्वयं अपने कंधों पर लिया था,
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