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वज्जालग्ग
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५४. जो इस जन्म में नहीं हुआ और जिसका लाखों जन्मों में भी हो पाना सम्भव नहीं है, उसे दुर्जन (पिशुन) ऐसे (सहज भाव से) कह जाता है जैसे बिलकुल सच हो ॥ ६ ॥
५५. यदि गुणवान् गुण से और धनवान् धन से गर्वित हो जाते हैं तो हो जायँ। खलों का तो मार्ग ही अद्भुत है, वे तो दोषों पर ही गर्व करते हैं ॥ ७॥
५६. अकारण वैर रखने वाले खलों का मार्ग ही अपूर्व है । वे स्वयं सम्पत्ति होते हुए भी नहीं देते, देने वाले को रोकते हैं और दिया हुआ द्रव्य भी छीन लेते हैं।८ ॥
५७. *दूसरों के विवरों (बिलों) में प्रविष्ट हो जाना ही जिसका लक्ष्य है, जिसके शरीर पर चित्तियां हैं, जिसकी दो जिह्वाएँ हैं और जो कुटिल गति से चलता है उस भयानक सर्प को जैसे सुख नहीं मिलता है; ठीक वैसे ही उन दुष्ट जनों को भी सुख नहीं मिलता है जो दूसरों के छिद्रों (दोषों) को ही देखते रहते हैं, जो चञ्चलचित्त वाले हैं, जो अत्यन्त कठोर हैं, जो चगलखोर हैं और जिनकी गति वक्र है ॥ ९ ॥
५८. *मन्त्र-तन्त्र से असाध्य, (सांपों के) आठों कुलों से बहिर्भूत, फणहीन व्यन्तरसों के समान जिनके निवारण में उपदेश एवं उपाय व्यर्थ हैं, जो परिवार की मर्यादा से मुक्त हैं, जो विषय-सेवन से नोच हो चुके हैं, ऐसे खलों को देख कर कौन नहीं डरता' ? ॥ १० ॥
५९. खलों के बीच जीवित रहे, यही बहुत बड़ा लाभ है। पैर में लिपटा साँप यदि नहीं काटता तो यही बहुत है ॥ ११ ॥
* विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य । १. इस पर प्रो० पटवर्धन की टिप्पणी उचित नहीं है।
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