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________________ वज्जालग्ग ५-दुज्जणवज्जा (दुर्जनपद्धति) ४९. जिसकी कान्ति निरन्तर घने काजल के समान मलिन रहती है, जिसकी दोनों भौंहें चढ़ी रहती हैं, ऐसे दुष्ट का मुख कभी भी निर्मल नहीं दिखाई देता ॥१॥ ५०. *जिसकी ग्रीवा (गर्व से) वक्र रहती है, (भयानक दृष्टि के कारण) जिसे देखना कठिन है ऐसा वंचित न होने वाला (अर्थात् कभी धोखा न खाने वाला) अभिमानी (थद्ध = स्तब्ध), खल (दुष्ट-पुरुष) शूलप्रोत (शूली पर चढ़ाये हुए) मनुष्य और अभिनव धनी के समान प्रतीत होता है ॥२॥ ५१. जिस प्रकार नहन्नो नख और मांस को अलग-अलग करने वाली, अस्थि का खण्डन करने में समर्थ, द्विमुखी एवं मध्य वक्र होती है, उसी के समान दुष्ट जन भो प्रेमी जनों में भेद उत्पन्न करने वाले, अथियों अर्थात् याचकों के हित का खण्डन करने में समर्थ, द्विमुखी अर्थात अन्दर-बाहर से एक समान न रहने वाला (कभी कुछ और कभी कुछ कहने वाला) तथा वक्र हृदय वाला होता है, उसे (दूर से ही) नमस्कार कर लो ॥ ३ ॥ ५२. दुष्ट पुरुष मृदङ्ग के समान होता है। जिस प्रकार मृदङ्ग अकूलोन (भूमि का स्पर्श न करते हये गोद में रख कर बजाया जाता है) होता है, उसीप्रकार दुष्ट भी अकुलीन होता है। जिसप्रकार मृदङ्ग के दो मुख होते हैं, उसी प्रकार दुष्ट भी द्विमुखी होता है अर्थात् सामने प्रशंसा व पीछे निन्दा करने वाला होता है। जिस प्रकार मृदङ्ग तभी तक ही स्वर देता है जब तक उस पर आटा लगा रहता है, उसी प्रकार दुष्टजन भी तभी तक मधुर भाषी होते हैं जब तक उनके मुख में भोजन रहता है अर्थात् उनका हित साधन होता रहता है। जैसे मृदङ्ग आटा निकल जाने पर स्वरहीन हो जाता है, उसी प्रकार दुष्टजन भी मतलब निकल जाने पर कटुभाषी बन जाते हैं।॥ ४ ॥ ५३. जिस प्रकार लौह से बना हुआ बाण धर्म अर्थात् धनुष से रहित होकर गुण अर्थात् प्रत्यञ्चा से छूटकर, स्थान (आलोढ़ादि प्रयत्न विशेष) से विमुक्त होकर, लगने पर प्राणियों के हृदय का भेदन करता है, उसी प्रकार दुष्ट जन भी लोभ के वशीभूत होकर धर्म और गुण से रहित हो मिलने पर लोगों के हृदय को पीड़ा पहुँचाता है ॥ ५ ॥ * विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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