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वज्जालरंग
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४३. अरे कलिकाल रूपी महागजेन्द्र ! तुम्हारी गर्जना का यह कौन सा अवसर है ? आज भी यह पृथ्वी सत्पुरुष-रूपो सिंह-कुमार के चरणों से अङ्कित है ॥ १२ ॥
४४. दीनों का उद्धार करना, शरणागत का प्रिय (मङ्गल) करना और अपराधियों को भी क्षमा कर देना-यह केवल सज्जन ही जानता है ॥ १३ ॥
४५. पृथ्वी दो प्रकार के पुरुषों को धारण करती है अथवा दो प्रकार के पुरुषों ने पृथ्वो को धारण किया है-जिस को मति उपकार में (लगो) है और जो किए हुये उपकार को नहीं भूलता ॥ १४ ॥
४६. *सज्जन पहले तो वचन देते ही नहीं, यदि देते हैं तो बहुत कठिनाई से और जब वचन दे देते हैं, तो वह (दिया गया वचन) पाषाणरेखा के समान सदैव अटल रहता है और मरने पर भी उसमें अन्यथाभाव नहीं होता (अर्थात् अपना जीवन देकर भी उस वचन का निर्वाह करते हैं)॥ १५ ॥
४७. प्रलय काल में पर्वत भी चलायमान हो जाते हैं, सागर भी अपनी सीमायें छोड़ देते हैं। किन्तु सज्जन व्यक्ति उस काल में भी अपने वचन को भंग नहीं करते ॥ १६ ॥
४८. यद्यपि विधाता ने सज्जनों को चन्दनतरु के समान फलरहित बनाया है तथापि वे अपने शरीर से लोगों का उपकार करते रहते हैं (या जगत् का उपकार करते रहते हैं) ॥ १७ ॥
* विशेष विवरण परिशिष्ट 'ख' में द्रष्टव्य । १. चन्दन में फल नहीं लगते हैं और सज्जन में फल अर्थात् स्वार्थ नहीं
होता है।
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