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________________ वज्जालग्ग २५. जो अनवरत विपुल रोमांच के साथ जन-मन में आनन्द उत्पन्न करता हुआ शिर न धुनवा दे (हिलवा दे), वह प्रेम और काव्य व्यर्थ है (उस प्रेम या काव्य से क्या लाभ ? ) ।। ७ ।। २६. वही कवि-रचित विविध-काव्यों को दूषित करता हुआ (उनकी आलोचना करता हुआ) शोभित होता है, जो अनुपयुक्त पद को हटाकर अन्य उपयुक्त पद की योजना करने में समर्थ है ॥ ८ ॥ २७. विराम के स्थान पर न रुकना, रसहीन होना, देश-काल की उपेक्षा करना, अनुनासिक उच्चारण, त्वरितपाठ, मुँह बिगाड़ना और लय रहित पाठ करना-ये काव्य-पाठक के दोष हैं ।। ९ ।। २८. देशी शब्दों से रचित, मधुर अक्षरों और छन्दों में आबद्ध, स्पष्ट (फुड), गम्भीर और गूढार्थवाले (पायडत्थ = प्रावृतार्थ = ध्वनि) ललित प्राकृत-काव्य पठनीय हैं ॥ १० ॥ २९. ललित, मधुराक्षर से युक्त, युवतियों को प्रिय और शृंगार-रस से युक्त प्राकृत-काव्य के रहते हुए कौन संस्कृत पढ़ सकेगा अर्थात् नहीं पढ़ेगा ॥ ११ ॥ ३०. जब छन्दों के लक्षणों को न जानने वाले मर्ख, (अनाड़ी) विद्वानों के बीच काव्य-पाठ करते हैं, तब वे (विद्वानों के) भृकुटि-खड्ग (अरुचि के कारण खड्ग के समान वक्र भौंह) से कटे हुए (अपने) मस्तक को भी नहीं देख पाते (अर्थात् अपनी कमियों को नहीं जान पाते हैं) ॥ १२॥ (जब विद्वान् विरस एवं अशुद्ध काव्य-पाठ से ऊब कर भौंहे टेढ़ी करने लगते हैं, उस समय उनके कटाक्ष से मानों उन मूों के शिर ही कट जाते हैं, परन्तु वे इतना भी नहीं जान पाते । ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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