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________________ ७१२ विज्जाहिए कत्तो, ७३० ७६२ ( 1 ) कुलाहि पुरिसा समुष्पन्ना ॥ अप्पं परं न याणसि नूणं सउणो सि लछिपरियरिओ । उज्जलसमुहो पेच्छह, ता वयणं पि हुन टावे || उत्तमकुलेसु जम्मं मज्झे न जाणवत्ती २८४४६ कि कज्जं जस्स ते वि याणंति बीमहि व एकत्तो कुलाहि पुरिसा समुप्पण्णा ॥ यह पाठ 'गउडवहो' के आधार पर है । अप्पा परं न याणसि नूणं सउणोसि लच्छिपरियरिओ । उज्जलसमुहो पेक्ख ह Jain Education International ता वयणं पि हु न ठावेइ ॥ उत्तमकुले जन्म मज्झेण जाणवत्ती किकज्जं जस्स ते वियाणंति । उपर्युक्त स्थलों के हिन्दी अनुवाद को हृदयंगम करने के लिए परिशिष्ट ख का अवलोकन नितान्त आवश्यक है । साथ ही और भी बहुत सी गाथायें ऐसी हैं, जिनका मर्म वहीं समझा जा सकता है । परिशिष्ट ख में व्याकरण, कोष और साहित्य के प्रसिद्ध ग्रन्थों से विविध प्रमाण उद्धृत कर अपनी मौलिक आर्थिक मान्यताओं की सुदृढ़ स्थापना की गई है । पूर्ववर्ती व्याख्याकार जिन गाथाओं में विद्यमान श्लेष को नहीं पहचान सके थे, उनमें प्रमाण पुरस्सर श्लेष का अस्तित्व सिद्ध किया गया है । बहुत सी गाथायें व्यंजक शब्दों में निहित निगूढ व्यंग्य की अनवगति के कारण दुरूह हो नहीं, असंगत भी प्रतीत होती थीं। उनकी विशद् विवेचना की गई है और व्यंग्य को स्पष्ट कर आर्थिक विसंगति को दूर कर दिया गया है । मैंने अनेक गाथाओं में वर्णित कामियों की कुचेष्टाओं का प्रकाशन निर्लिप्त रहकर ही किया है । अतः निर्दोष हूँ । अन्धकार में प्रकाश होने पर द्रष्टा को चाहे घट दिखाई पड़े चाहे विषधर सर्प, इसमें दीपक का क्या दोष है ? जो रहेगा वही तो दिखाई देगा - गाहासु कामीण कुचेष्टिआई मए अलित्तेण णिरूविआई । कुडो आसिज्जइ सप्पओ वा को एत्थ दीवस्स तमंमि दोसो || प्रस्तुत व्याख्या सर्वथा दोषमुक्त है - यह कहना अत्युक्ति होगी, क्योंकि इस सम्बन्ध में मेरा यह कथन है जए ससंकोण कलंकवज्जिओ ण रत्ति रहिओ दिअहो वि दिस्सर । आहिअरणंभि मई अ विग्भमो कहूं णु होज्जा रअणा अदुट्ठा ॥ ● For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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