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________________ दैन्य, श्रद्धा, कुलाभिमान और कर्तव्यनिष्ठा का विलक्षण दृश्य है। कभी वैभव के दिनों में जहाँ वायस बलि खाया करता था, अब उसी घर की गिरी दशा आ गई है । प्रत्येक दिन की तरह वह परिचित वायस आज भी आया परन्तु बिना कुछ पाये निराश होकर उड़ गया। यह देख कर दरिद्र गृहिणी इतना रोई, जितना बान्धवों के मरने पर भी न रोती बन्धवमरणे वि हहा दुग्गयघरिणोइ वि ण तहा रुण्णं । अपत्तबलिविलक्खे वल्लहकाए समुड्डोणे ॥ दरिद्रता में भी एक गृहिणी के त्याग और तप की तब पराकाष्ठा हो जाती है, जब वह स्वयं भूख से पीड़ित होने पर भी, बालकों के खाने से बचा हुआ भोजन दुःखियों में बाँट देती है डिभाण भुत्तसेसं छुहाकिलंता वि देइ दुहियाणं । कुलगोरवेण वरईउ रोरघरिणीउ झिज्जंति ॥ यह है दया, दैन्य और कुलगौरव की साक्षात् प्रतिमूर्ति । नारी केवल भोग्या नहीं है। वह गृहकार्य में गृहिणी, सुरत में वेश्या, सुजनों में कुलवधू, वृद्धावस्था में सखी एवं संकट में मंत्री और सेवक है-इन पंक्तियों में वह अनेकान्तवाद का सुन्दर उदाहरण बन गई है घरवावारे घरिणी वेस्सा सुरयंमि कुलवह सुयणे। परिणइ मज्झमि सही विहुरे मंति व्व भिच्चो व्व ॥ जैन धर्म में एकान्त बुद्धि को अज्ञान बताया गया है। वज्जालग्ग की संग्रहशैली इस धार्मिक मान्यता की सूचना देती है। यदि वज्जाओं का इस दृष्टि से अवलोकन करें, तो यह तथ्य स्पष्ट हो जायेगा। संयोग-वियोग, कमलनिन्दाकमलप्रशंसा, प्रेमनिन्दा-प्रेमप्रशंसा, सुघरिणी-कुटिनी, सती-असती, पतिव्रताधेश्या, दानी-कृपण, महिलानुराग-महिलानिन्दा ( महिलावज्जा ), भाज्यवादपुरुषार्थवाद, सज्जन-दुर्जन, प्रभु-सेवक, दीन-धीर भादि युग्मों के द्वारा जिन परस्पर विरोधी धर्मों को प्रस्तुत किया गया है, उनके कारण पाठकों के मन में पदार्थ सम्बन्धी दुराग्रह या स्थिर ऐकान्तिक-धारणा नहीं बन सकती है। स्थूल दृष्टि से ग्रन्थ में वासनात्मक चित्रों की बहुलता दिखाई पड़ती है, परन्तु सूक्ष्म-शेमुषी से कुछ और ही बात समझ में आती है। प्रेम में वियोग की प्रधानता क्या सन्देश देती है ? क्या वह प्रणय की दुःखद परिणति की ओर इंगित नहीं करती? यदि ग्रन्थ का लक्ष्य विलासिता का प्रचार होता, तो प्रेमवज्जा में ये गाथायें क्यों संकलित की जाती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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