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________________ ( xxxix ) कर्म ही मानव को उच्च और नीच स्थान प्राप्त कराता है। मन्दिर और कप बनाने वाले क्रमशः ऊपर और नीचे मुंह करके चलते हैं। संयम भारतीय संस्कृति की आत्मा है। निम्नलिखित गाथा में कुलबालिकाओं के मनोनिग्रह का कितना मनोरम चित्र है इच्छाणियत्तपसरो कामो कुलबालियाण किं कुणइ । सीहो व्व पंजरगओ अंग च्चिय झिज्जइ वराओ॥ गाथा के अनुसार भारतीय ललना इन चार वस्तुओं का समाहार है-वीणा, वंश, आलापिनी, पारावत और कोकिल । जो सब के खा चुकने पर खाती है, सब के सो जाने पर सोती है और सबसे पहले जग जाती है, वह स्त्री नहीं, घर को लक्ष्मी है । आदर्श गृहिणी घर के थोड़े से भक्ष्यकणों को कुछ इस प्रकार बढ़ा देती है कि बान्धव भी समुद्र के समान थाह नहीं पाते हैं । दरिद्र महिलाओं के सन्तोष और गाम्भीर्य का वर्णन इस प्रकार है दुग्गयघरंमि घरिणी रक्खंती आउलत्तणं पइणो । पुच्छियदोहलसद्धा उययं त्रिय दोहलं कहइ ॥ गर्भिणी पत्नी से पति पूछता है-"तुम्हारी इच्छा क्या है ?" वह सोचती है कि यदि कहीं कोई दूसरी वस्तु माँगूगी तो ये अकिंचनता वश नहीं दे पायेंगे। अतः कहती है-'मेरी कुछ भी इच्छा नहीं है, केवल जल पीना चाहती हूँ। जल, राजा और रंक सब को सुलभ है । यह है भारतीय महिला का तपःपूत व्यक्तित्व । जब नैहर के लोग ठाट-बाट से आते हैं, तब आभिजात्य पर गर्व रखने वाले निःस्व पति को मर्यादा बनाये रखने में तत्पर गृहिणी उन पर कुपित हो उठती है । कामुक देवर का मन दूषित हो जाने पर चरित्रगुणशालिनी भाभी चिन्ता से क्षीण होती जाती है, परन्तु यह बात अपने क्रोधी पति को नहीं बताती, क्यों कि भय है कि कहीं संयुक्त परिवार विघटित न हो जाय । सुघरिणीवज्जा में परिवार की नाव खेने वाली तपस्विनी ललनाओं के कर्मठ व्यक्तित्व एवं त्यागमय जीवन के अनेक मार्मिक प्रसंग है, जो दूसरों के लिये अनुकरणीय हो सकते हैं। एक दरिद्र के घर में कुछ भी नहीं रह गया है। संयोग से एक अतिथि आ जाता है। कुटुम्बभरण में लगी दरिद्र गृहस्वामिनी अपने विवाह का मांगलिक वलय बेंच कर उसका आतिथ्य करती है पत्ते पियपाहुणए मंगलवलयाइ विक्किणंतीए । दुग्गयधरिणीकुलवालियाइ रोवाविओ गामो॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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