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( xxxviii )
जाता है । धीर-पुरुष सदैव पुरुषार्थ में प्रवृत्त रहता है, भाग्य के भरोसे बैठा नहीं रहता। साहसवज्जा में साहस के लिये प्रेरित करते हुये कहा गया है कि साहसी व्यक्ति मनोवांछित फल प्राप्त करके ही दम लेता है, राहु के केवल मस्तक ही था, शरीर, हाथ-पाँव आदि नहीं थे, फिर भी वह चन्द्रमा को निगल गया । वीरों के साहस को देखकर प्रतिदैव (भाग्य) भी भयाक्रान्त हो जाता है और अनुकूल कार्य करने लगता है । व्यवसाय का फल है विभव, विभव का फल है विह्वलजनोद्धार, विह्वलजनोद्धार से यश की प्राप्ति होती है और यश से सब कुछ मिल जाता है । सत्पुरुषों को ऐश्वर्य में विनम्र और ऐश्वर्यहीन होने पर उन्नत रहना चाहिये । दान की सत्प्रवृति को प्रोत्साहित करती हुई गाथा कहती है-हे जननी ! ऐसे पुत्र को जन्म मत देना, जो दूसरे से याचना करने में प्रवृत हो । जिसने याचना करने पर याचक को निराश कर दिया हो, उसे तो गर्भ में भी न धारण करना। प्रभु-वज्जा में बताया गया है कि स्वामी को मूों का अनादर और सुपात्रों का समादर करना चाहिये । सेवकवज्जा में सेवा का उज्ज्वल आदर्श वर्णित है । आदर्श सेवक स्वामी से मुँह खोलकर कुछ नहीं मांगता है, विनम्र सेवा को ही अपनी याचना समझ कर सन्तुष्ट रहता है । कृषि की प्रशंसा में यह कथन हैयदि पीवर स्तनों वाली तीन गायें, चार समर्थ बैल और रालक धान्य की मंजरियाँ निष्पन्न हैं, तो सेवा-वृत्ति को दूर से ही प्रणाम कर लेना चाहिये। सुहड-वज्जा में पराक्रम की प्रशंसा है । धवलवज्जा में कर्मठ भृत्य का आदर्श प्रतीक माध्यम से वर्णित है । सिंहवज्जा में साहस, पराक्रम और व्यवसाय की प्रेरणा दी गई है। हरिणवज्जा में संगीत पर प्राणों की बलि चढ़ा देने वाले हरिणो के मर्मस्पर्शी चित्र कलाकारों को उचित पुरस्कार देने के लिये उत्साहित करते हैं । करभवज्जा में मातृभूमि के अलौकिक अनुराग की अद्भुत झांकी प्रस्तुत की गई है। करभ नन्दवन में भी रहकर जन्मभूमि के मरुस्थल को नहीं भूल पाता है । सुरतरु विशेष और हंस वज्जाओं में श्रेष्ठ आश्रय को छोड़ कर निंद्य आश्य में रहने की निंदा की गई है। वेस्सावज्जा में वेश्यागमन की घोर निंदा है । कुटिलता, वक्रता, वंचना और असत्य-ये दूसरे के दोष भले ही हों, वेश्या के भूषण है । उसकी छाती उस शैवाल-लिप्त प्रस्तर के समान है, जिस पर चढ़ने वाले का पतन अवश्यंभावी है। वेश्या श्मशान को उस शृगाली के समान है, जो एक मृतक को खाती है, दूसरे को कटाक्ष से सुरक्षित रखती है
और तीसरे पर दृष्टि रखती है। जरावज्जा जगत् की क्षण-भंगुरता का प्रतिपादन करती है। गुणवज्जा में कुल की अपेक्षा गुण को श्रेष्ठ कहा गया है।
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