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________________ (xii ) ताव च्चिय होइ सुहं जाव न कीरइ पिओ जणो को वि। पियसंगो जेहि कओ दुक्खाण समप्पिओ अप्पा ।। सो सुवइ सुहं सो दुक्खवज्जिओ सो सुहाण सयखाणी । वाए मणेण काएण जस्स न हु वल्लहो को वि ।। स्तनवज्जा में यदि संग्रहकार को स्तनाभिलाष प्रतिपादन ही अभीष्ट होता, तो अन्त में ये गाथायें नहीं आ सकती थीं थणजुयलं तीइ निरंतरं पि दळूण तारिसं पडियं । मा करउ को वि गव्वं एत्थ असारंमि संसारे ॥ कह नाम तीइ तं तह सभावगरुओ वि थणहरो पडिओ। अहवा महिलाण चिरं हियए को नाम संठाइ । 'परिवर्तित संस्कृत छाया वांछित अर्थसिद्धि के लिये मैंने उपलब्ध संस्कृत छाया में स्थान-स्थान पर 'प्रमाण पुरस्सर परिवर्तन किये हैं। इस सन्दर्भ में मेरी विवेचनात्मक स्थापनायें परिशिष्ट ख में दी गई हैं। यहाँ उपलब्ध संस्कृत छाया-पाठ परिवर्तन के साथ नीचे दिया जा रहा हैगाषांक सुजनानां सुभाषितं वक्ष्यामि सुजनेभ्यः सुभाषितं वक्ष्यामि (परिवर्तित पाठ) पिशुने सुखम् पिशुनेन सुखम् (परिवर्तित पाठ) बहकूटकपटभृतानाम् १-बहुकूटकपट भूतानाम् २-बहुकूटकर्वट भूतानाम् (परिवर्तित पाठ) भव्यात्मनां संपद्यते भव्यत्ववतां संपद्यते (परिवर्तित पाठ) शास्त्रार्थे पतितस्य (स्वस्वार्थे पतितस्य वा) शस्तार्थे पतितस्य (परिवर्तित पाठ) लक्ष्मीः स्थिराणि प्रेमाणि लक्ष्मीरपि राति (ददाति) प्रेमाणि (परिवर्तित पाठ) १६२ स्नेहस्य पदस्य वा स्नेहस्य पयसो वा (परिवर्तित पाठ) १२१ १२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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