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( xxxvi ) शहर मँझार ही पहर एक लागि जैहै,
छोरे पै नगर के सराय है उतारे की। कहत कविंद मग माँझ ही परैगी साँझ,
____ खबर उड़ानी है बटोही द्वैक मारे की। घर के हमारे परदेश को सिधारे,
यातें दया कै बिचारी हम रीति राह बारे की । उतरौ नदी के तीर, बरके तरे ही तुम,
चौंको जनि चौंकी तही पाहरू हमारे की । इसमें प्राकृत-गाथा के समान ही व्यंजकता का पूर्ण निर्वाह है। कहीं-कहीं व्यंग्य इतना अपरिहार्य हो गया है कि बिना उसके गाथा का अर्थ हो अधूरा और असंगत प्रतीत होने लगता है
एक्कसर पहर दारिय माइंद गइद जज्झमाभिडिए । वाहि न लज्जसि नच्चसि दोहग्गे पायडिज्जंते ॥
व्याध ने युद्धरत व्याघ्र और गजेन्द्र को एक ही बाण से मार गिराया है । पति के इस शौर्य से पुलकित हो कर व्याध-वधू नाचने लगती है । सखी कहती है-अरी नाचती क्यों है ? यह तो तेरा दुर्भाग्य प्रकट हुआ है । लीजिये, पति का पराक्रम भी पत्नी का दुर्भाग्य-सूचक बन गया। कितनी बड़ी असंगति है, इस अर्थ से । परन्तु दूसरे क्षण व्यंजना व्यापार का उन्मेष होता है । आखिर विवाहित व्याध का अपरिमित बाहुबल सुरक्षित कैसे रह गया ? यदि वह अपनी पत्नी के प्रणय-पाश में आबद्ध होता तो निःसंदेह विषय-सेवन से क्षीण हो गया होता और एक ही बाण से दो दुर्धर्ष वन्य पशुओं का वध न कर पाता । अतः वह अपनी पत्नी से प्रेम नहीं करता है । स्त्री का इससे बढ़ कर दुर्भाग्य और क्या हो सकता है ? गाथाओं में जहाँ व्यंग्य प्रधान नहीं रहता, वहाँ भी वह कभी वाच्य का साधक होता है, तो कभी अंग । कभी उसकी प्रधानता सन्दिग्ध होती है, तो कभा वाच्य और व्यंग्य दोनों समकक्ष होते हैं । व्यंग्य जब वाच्य का अंग होता है, तब समासोक्ति होती है और जब दोनों समकक्ष होते हैं, तब अप्रस्तुतप्रशंसा । वाच्य की अपेक्षा व्यंग्य का प्राधान्य होने पर काव्य का अभिधान ध्वनि होता है । वज्जालग्ग में इन तीनों के उदाहरण भरे पड़े हैं ।
वज्जालग्ग की रचनाशैली विदग्धता से परिपूर्ण है । इससे सराबोर होने पर भी उसकी गाथाओं को समझने के लिए केवल शब्द और अर्थ के ज्ञान से काम
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