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अत्ता वहिरंधलिया बहुविहवीवाह संकुलो गामो । मज्झ प य विएसे को तुज्झ वसेरयं देइ ॥ इसका भावानुवाद मैंने यों किया है
सास बिचारी के आँख नहीं वह,
देखती है दिन में ही अँधेरा । आज विवाह में लोग गये सब,
लौटेंगे होने के बाद सबेरा । कोई नहीं है अकेली हूँ गेह में, डेरा |
दूर विदेश में कंत का
ढूंढ़ लो रात में दूसरा ठौर है,
कौन यहाँ जो तुम्हें दे बसेरा ॥
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यहाँ प्रोषित पतिका वक्त्री है और बोद्धा ( श्रोता ) है प्रोषित नवयुवक | दोनों में आंगिक संपर्क की वासना समान है । सूना घर और रात्रि का समय - ऐसे अनुकूल देश-काल में वासना तृप्ति का कितना सुन्दर अवसर है । अतः भावुक एवं विदग्ध काव्य मर्मज्ञों को नायिका के निषेध में भी गुप्त स्वीकृति की झलक मिल जाती है । रीति काल के प्रसिद्ध कवि सुखदेव मिश्र ( कविराज ) ने निम्नलिखित कवित्त में ऐसी ही व्यंजक परिस्थिति को उपस्थित करने का प्रयास 'किया है
ननद निनारी, सासु मायके सिधारी,
अहे रैनि अँधियारी भरी, सूझत न करु है । पीतम को गौन, कविराज न सोहात भौन,
दारुन बहुत पौन, लाग्यो मेघ झरु है | संग ना सहेली, बैस नवल अकेली,
तन परी तलबेली - महा लाग्यो मैन सरु है । भई अधिरात, मेरो जियरा डरात,
-इस
जा जा रे बटोही ! यहाँ चोरन को डरु है ॥ परन्तु कवि ने "तन परी तलबेली - महा, लाग्यो मैन सरु है". वाक्य- द्वारा व्यंग्य को बिल्कुल वाच्य कर दिया है । अतः यह कवित्त पूर्वोदाहृत गाथा की समकक्षता में नहीं आ सकता है । इसकी अपेक्षा, इसी सन्दर्भ में कवीन्द्र का यह कवित्त वस्तु ध्वनि का सुन्दर उदाहरण है
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