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________________ ( xxxv ) अत्ता वहिरंधलिया बहुविहवीवाह संकुलो गामो । मज्झ प य विएसे को तुज्झ वसेरयं देइ ॥ इसका भावानुवाद मैंने यों किया है सास बिचारी के आँख नहीं वह, देखती है दिन में ही अँधेरा । आज विवाह में लोग गये सब, लौटेंगे होने के बाद सबेरा । कोई नहीं है अकेली हूँ गेह में, डेरा | दूर विदेश में कंत का ढूंढ़ लो रात में दूसरा ठौर है, कौन यहाँ जो तुम्हें दे बसेरा ॥ 1 यहाँ प्रोषित पतिका वक्त्री है और बोद्धा ( श्रोता ) है प्रोषित नवयुवक | दोनों में आंगिक संपर्क की वासना समान है । सूना घर और रात्रि का समय - ऐसे अनुकूल देश-काल में वासना तृप्ति का कितना सुन्दर अवसर है । अतः भावुक एवं विदग्ध काव्य मर्मज्ञों को नायिका के निषेध में भी गुप्त स्वीकृति की झलक मिल जाती है । रीति काल के प्रसिद्ध कवि सुखदेव मिश्र ( कविराज ) ने निम्नलिखित कवित्त में ऐसी ही व्यंजक परिस्थिति को उपस्थित करने का प्रयास 'किया है ननद निनारी, सासु मायके सिधारी, अहे रैनि अँधियारी भरी, सूझत न करु है । पीतम को गौन, कविराज न सोहात भौन, दारुन बहुत पौन, लाग्यो मेघ झरु है | संग ना सहेली, बैस नवल अकेली, तन परी तलबेली - महा लाग्यो मैन सरु है । भई अधिरात, मेरो जियरा डरात, -इस जा जा रे बटोही ! यहाँ चोरन को डरु है ॥ परन्तु कवि ने "तन परी तलबेली - महा, लाग्यो मैन सरु है". वाक्य- द्वारा व्यंग्य को बिल्कुल वाच्य कर दिया है । अतः यह कवित्त पूर्वोदाहृत गाथा की समकक्षता में नहीं आ सकता है । इसकी अपेक्षा, इसी सन्दर्भ में कवीन्द्र का यह कवित्त वस्तु ध्वनि का सुन्दर उदाहरण है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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