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( sexxiv )
"कुसल राहे" "सुहिओ सि कंस" "कंसो कहि" बालियाइ भणिए विलक्खहसिरं
"कहि राहा ।" नमह ॥
इय
हरि
प्रथम उदाहरण में नायिका के भोलेपन के साथ गाथा की सरलता और आडम्बरशून्यता भी अनुपम है ।
लक्षक और व्यंजक शब्दों के उचित प्रयोग के कारण वज्जालग्ग की शैली में पर्याप्त भंगिमा आ गई है । अनेक गाथायें ध्वनि काव्य के सर्वोत्तम उदाहरणों के रूप में रखी जा सकती हैं । लक्षक शब्द कभी-कभी अपने वाच्य के साथ अर्थान्तर में संक्रमित हो जाते हैं और कभी-कभी उनका वाच्यार्थ बिल्कुल तिरोहित हो जाता है----
मणालि संधुक्खिय णेहिंदूसह दूरपज्जलिओ । ses सहि पियविरहो जलणो जलणोच्चिय वराओ ॥
— अर्थान्तर संक्रमित वाच्य ध्वनि
यहाँ द्वितीय जलण (ज्वलन) शब्द अपने अर्थ के साथ अर्थान्तर (नाम मात्र का अग्नि) में संक्रमित हो गया है । अत्यन्त तिरस्कृत वाच्य ध्वनि का एक उदाहरण देखिये --
कवडेण रमंति जणं पियं पयंपंति अत्थलोहेण । ताण णमो वेस्साणं अप्पा वि न वलहो जाणं ॥
यहाँ नमस्कार का वास्तविक अर्थ असंगत होने के कारण उपेक्षित है । उक्त शब्द का अर्थ 'श्रद्धापूर्वक ग्रहण' नहीं, 'अश्रद्धापूर्वक त्याग' है । बहुत सी गाथाओं में वक्ता, बोद्धा, काकु, वाक्य, वाच्य, अन्यसन्निधि, प्रस्ताव (प्रकरण ) देश, काल और हाव-भावादि के वैशिष्ट्य से वाचक शब्द भी स्वार्थ विश्रान्त न होकर व्यंग्य के वाहक बन गये हैं । वाच्य और व्यंग्य की प्रतीतियों में पूर्वापर क्रम लक्षित होने कारण ऐसे काव्यों को शास्त्रीय भाषा में संलक्ष्य-क्रम ध्वनि कहा गया है । वस्तु ध्वनि का एक निदर्शन प्रस्तुत है
जिसे हिन्दी के प्रसिद्ध कवि पद्माकर ने जगद्विनोद में अनूदित किया है
बाले ! नाथ ! विमुञ्च मानिनि ! रुषं रोषान्मया किं कृतम्, खेदोऽस्मासु, न मेऽपराध्यति भवान् सर्वेऽपराधा मयि । तकि रोदिषि गद्गदेनवचसा, कस्याग्रतो रुद्यते, न वेतन्मम का तवास्मि, दयिता नास्मीत्यतो रुद्यते ॥
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-अमरुशतक
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