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( xaxiii ) एक हो वज्जा में निविष्ट विभिन्न गाथाओं में शैली-भेद विद्यमान है। यदि कहीं दीर्घ समासान्त-पदावली के विकट बन्ध हैं, तो कहीं समास की गन्ध भी नहीं है और कहीं समास है, किन्तु नितान्त विरल । यदि कहीं श्लेष के कारण आर्थिक जटिलता है, तो दूसरी ओर ऐसी आडम्बरहीन गाथायें भी हैं, जहाँ एक-एक पद से अनायास अर्थ छलकता दिखाई देता है । वैदर्भी रीति का प्राधान्य है । प्रसाद और माधुर्य गुणों की अनुपम छटा दर्शनीय है । किसी-किसी वज्जा में ( जैसे सुहड और साहस ) ओज भी है। निम्नलिखित गाथाओं की विलक्षण प्रासादिकता दर्शनीय है
थर-थर थरेइ-हिययं जीहा घोलेइ कंठमज्झमि । नासइ प्रहलावण्णं देहि त्ति परं भणंतस्स ॥ ता एवं ताव गुणा लज्जा सच्चं कुलक्कमो ताव ।
ताव च्चिय अहिमाणो देहि त्ति ण भण्णए जाव ।। अनेक गाथा अलंकार के भार से लदी हैं। शब्दालंकारों में यमक के उदाहरण कम हैं । अनुप्रास अनायास ही सुलभ हो जाता है। वस्तुतः श्लेष की ओर ही कवियों का झुकाव अधिक है । इसी कारण अनेक गाथायें बहुत दुरूह बन गई है । प्रायः गाथाओं में शब्दों को संवारने की अपेक्षा अर्थों को अलंकृत करने का अधिक प्रयास किया गया है, इसीलिये श्लेष जैसा शब्दालंकार भी अन्य का अंग होकर गौण ही रह गया है । मुहाविरों और लोकोक्तियों के प्रयोग भी अनेक गाथाओं में मिलते हैं ( गा० ५५६, ४४९४ १३)। ध्वन्यात्मक एवं अनुरणनात्मक शब्दों के द्वारा रसानुभूति को तीव्र बनाया गया है । अनेक गाथायें बिल्कुल आडम्बर-हीन और अनलंकृत होने पर भी अपने भोले-पन से चित्त को अभिभूत कर लेती हैं। ऐसे स्थलों पर भाषा का जो अकृतिम सहज स्वरूप उपलब्ध होता है, वह अन्यत्र खोजने पर ही दिखाई देगा। यद्यपि कुछ स्थलों पर व्याकरण-विरुद्ध प्रयोग भी मिलते हैं, किन्तु गुणों की भीड़ में उन पर दृष्टि नहीं जाती है । उपमाओं में मूर्त उपमानों का बाहुल्य है । संवादात्मक शैली को अपनाने से कई गाथाओं में अद्भुत नाटकीयता आ गई है
'कइया गओ पियो" "पुत्ति अज्ज" "अज्जेव कइदिणा होति ।"२
"एक्को" "ए।हमेत्तो" भणिउं मोहं गया बाला ।। १. वज्जालग्गं, गा० ६६० । २. इसी संवादात्मक शैली में रचित निम्नलिखित श्लोक दर्शनीय हैं,
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