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पर न का प्रयोग है, तो मागधी के समान ज के स्थान पर य भी विद्यमान है । यदि महाराष्ट्री में प्रचलित ( वतवा के स्थान पर ) ऊण के दर्शन होते हैं, तो अर्धमागधी के समान वतवा का तुमुन् के अर्थ में प्रयोग भी है । यदि इस प्रकार लक्षणों की संकीर्णता पर तुलनात्मक दृष्टि से विचार करें, तो अपभ्रंश का प्रभाव सर्वाधिक है । जिन गाथाओं पर यह प्रभाव जितना अधिक है, उन्हें रचनाकाल दृष्टि से उतना ही अर्वाचीन समझना चाहिये । संक्षेप में भाषा की निम्नलिखित विलक्षणतायें दर्शनीय हैं :
१. आम् के स्थान पर हं, ङि के स्थान पर हि, देसि के स्थान पर देहि, अन्ति के स्थान पर हि और लोट् प्रथम पुरुष एक वचन में उ के स्थान पर हु का प्रयोग |
२. इ, इवि, एवि प्रभृति पूर्वकालिक क्रिया-प्रत्ययों का अपभ्रंशानुकूल प्रयोग ३. निष्ठा के अर्थ में मूलधातु का प्रयोग ।
४. अपभ्रंश उ प्रत्यय ।
५. लुप्तविभक्तिक प्रयोग ।
६. एतद् के स्थान पर एह, युष्मद् का तृतीया में पइ ।
७. लोट में सि के स्थान पर इ, करेसु के स्थान पर करि ।
८. छन्दों की आवश्यकता के अनुसार स्वरों में परिवर्तन, काट-छाँट, लघु को दीर्घ और दीर्घ को लघु बना देना ।
९. व्यत्यय, किसी स्वर के स्थान पर अन्य स्वर का प्रयोग ।
१०. समास में छन्दों को गति सुरक्षित रखने के लिये व्यजन-द्वित्व |
११. म, व और र का आगम' ।
१२. म के स्थान पर व एवं व के स्थान पर म ।
१३. द्वित्व के स्थलों पर द्वित्व का अभाव, मण्णे के स्थान पर मणे और दुस्सह के स्थान पर दूसह ।
विभिन्न वज्जाओं में देशी शब्दों का भारी संख्या में प्रयोग मिलता है । कितने देशी शब्द तो ऐसे हैं, जो प्रसिद्ध शब्दकोषों में भी अप्राप्य हैं । ऐसे शब्दों का बाहुल्य कवियों पर उनकी मातृभाषा ( प्रान्तीय भाषा ) के प्रभाव का सूचक है, क्योंकि उस समय तक प्रान्तीय भाषायें पर्याप्त विकसित हो चुकी थीं । १. वर्णागम की प्रवृत्ति पालि में भी है, वहाँ व, न, त, र और ग का आगम होता है
वनतरगा चागमा
· - मोग्गलान १/४५
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