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________________ ४५८ वज्जालग्ग उत्तमकुलेषु जन्म तव चन्दन तरुवराणां मध्ये । --रत्नदेव-कृत संस्कृत छाया श्रीपटवर्धन ने रत्नदेव-कृत संस्कृत छाया को शुद्ध मानकर लिखा है कि 'उत्तमकुलेसुजम्म' यह एक भद्दा प्रयोग है। इसके स्थान पर 'उत्तमकुलंमि' होना चाहिए था। परन्तु यह बहुवचन गाथा के अशुद्ध पाठ के कारण है। शुद्ध पाठ इस प्रकार है-- उत्तमकुले सुजम्मं ( अर्थात् उत्तम कुल में सुन्दर जन्म ) गाथा क्रमांक ७३५ भूमीगुणेण वडपायवस्स जइ तुंगिमा इहं होइ । तह वि हु फलाण रिद्धी होसइ बीयाणुसारेण ।। ७३५ ।। भूमिगुणेन वटपादपस्य यदि तुङ्गत्वमिह लोके तथापि खलु फलानामृद्धिर्भविष्यति बीजानुसारेण --रत्नदेव-कृत संस्कृत छाया इस पर रत्नदेव की यह व्याख्या है-- यद्यपि भूमिगुणेन वटवृक्षो ह्रस्वः संजातस्तथापि फलप्राचुर्य तथा भविष्यति येन सर्वेऽपि प्राणिनः सुखिताः भविष्यन्ति । अर्थात् यद्यपि भूमि के गुणों से वटवृक्ष का आकार छोटा हो गया है फिर भी फलों की इतनी अधिकता होगी कि सभी प्राणी सुखी हो जायेंगे। उपर्युक्त व्याख्या ठीक नहीं है क्योंकि एक तो तुङ्गत्व का अर्थ ह्रस्वत्व नहीं होता है और दूसरे वटवृक्ष के आकार की लघुता का कारण भूमि का दुर्गुण है, गुण नहीं। भूमि के गुणों को पाकर तो उसकी ऊँचाई आकाश चूमने लगती है। वटवृक्ष कितना ही विशाल क्यों न हो जाय, उसके नन्हें-नन्हें असंख्य फलों से सभी प्राणी कभी सुखी नहीं हो सकते. कुछ स्वल्पाहारी छोटे फलभक्षी पक्षी अवश्य सुखी हो जाते हैं । श्रीपटवर्धन ने यह अर्थ किया है-- "यद्यपि वटवृक्ष की ऊँचाई, मिट्टो की विलक्षण विशेषता का परिणाम हो सकती है तथापि फलों को प्रचुरता बीज की विशेषता के अनुसार होगी।" व्याख्यात्मक टिप्पणी में गाथा की आलोचना इन शब्दों में की गई है-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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