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________________ वज्जालग्ग ४५७ जाता है, उस समय वह सूर ( सूर्यरूपी शूर ) कहाँ रहता है ? विपत्ति के दारुण क्षणों में उसकी सूरता ( सूर्यता या शूरता ) कमलों के किस काम आती है ? कवि के व्यंजक शब्दों के अनुसार हम सूर ( सूर्य ) को तभी शूर ( वीर ) समझें जब वह जल सूख जाने पर अथवा जड़ से उखाड़ दिये जाने पर भी कमलों का कोई उपकार ( या उपचार ) कर सके। परन्तु वह करता क्या है ? उलटे अपनी तप्त किरणों से उन्हें सुखा डालता है। यही है उसका आश्रितरक्षण ! शब्दार्थ-सरस = १. जल से युक्त ( रस = जल ); २. प्रेम से युक्त ( रस - प्रेम )। सूरपरिसंट्ठिय = सूर्य ( सूर ) रूपी शूर (सूर ) के सम्मुख स्थित या सूर्य रूपी शूर के आश्रित । संठविया = स्थापित किया अर्थात् पुनः उसी स्थान पर लगा दिया । __ गाथार्थ--जल से युक्त ( जल में रहने वाले ) और सूर (सूर्य रूपी शूर ) के आश्रित ( सामने स्थित ) कमलों का कैसा हित ? ( अर्थात् सूर्य से उनका कौन सा स्वार्थ सिद्ध होता है ? ) जिनकी जड़ें उखाड़ दी गई हैं और जिनका पंक शुष्क हो गया है उनको ( सूर्य ने ) फिर से क्यों नहीं लगा दिया ( या वे पुनः क्यों नहीं स्थापित ( प्ररूढ ) हो गये ? )। इस गाथा में यह मार्मिक तथ्य संकेतित है कि मनुष्य जिस परिधि में जन्म लेता है और जो उपादान उसके विकास के पोषक होते हैं, उच्च पद पर पहुँचने पर वह उनकी उपेक्षा करने लगता है । वह अपने निकट के निम्नस्तरीय सहायकों से विमुख होकर बहुत दूर किसी अभिजात वर्ग से अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है । परन्तु जब वे आधारभूत प्रमुख तत्त्व नहीं रहते तब उसकी रक्षा नहीं हो पाती है। कमल पंक में जन्म लेता है, मूल (जड़ ) के ठोस आधार पर खड़ा होता है और सरोवर की शोतल जलराशि उसे संजीवनी शक्ति प्रदान करती है। परन्तु मकरन्द, सौरभ, सौन्दर्य, सुकुमारता और श्री का आगार बनने पर अपने उन पार्श्वचरों की उपेक्षा कर दूर आकाशवासी सूर्य का भरोसा करने लगता है। गाथा क्रमांक ७३० उत्तमकुलेसु जम्मं तुह चंदण तरुवराण मज्झमि । ७३०वीं गाथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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