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वज्जालग्ग
गाथार्थ - लक्ष्मी के द्वारा गृहीत ( लक्ष्मी के कृपा-पात्र ) व्यक्ति यदि ऊर्ध्वमुख ( ऊपर की ओर मुंह या दृष्टि रखने वाले ) नहीं हो जाते तो देखो, भला कमलों को जिन्होंने ऊपर उठाया है, उन नालों को ही वे न देखते ।
इस वर्णन से कमल का निम्नस्तर से ऊपर उठना और उन्नति के क्षणों में भी नालों पर अवलम्बित रहना व्यंजित होता है । जिससे निम्नस्तर से उठने वाले और ऊपर पहुँच जाने पर भी दूसरों के कन्धों पर टिक कर समृद्धि का उपभोग करने वाले उन अभिमानी श्रीमन्तों का परिचय मिलता है जो अपने सहायकों को बिल्कुल भूल जाते हैं ।
गाथा क्रमांक ७१७
सरसाण सूरपरिसंठियाण कमलाण कीस उवयारो ।
उक्खयमूला सुक्खंतपंकया कह न संठविया ॥ ७१७ ॥ सरसानां सूर्यपरिसंस्थितानां कमलानां कीदृगुपकारः उत्खातमूलानि शुष्यत्पङ्कानि कथ ं न संस्थापितानि
- रत्नदेवस्वीकृत संस्कृत छाया
घोषित कर अनूदित नहीं किया है ।
श्री पटवर्धन ने इस गाथा को अस्पष्ट रत्नदेव- कृत संक्षिप्त व्याख्या इस प्रकार है :--
"सरसानां सूरपरिसंस्थितानां कमलानां कीदृगुपकारः । जानामि यदि सूर्य उत्खातमूलानि शुष्यत्पङ्कानि संस्थापयति । ”
यह व्याख्या इतनी संक्षिप्त है कि श्री पटवर्धन जैसे विद्वान् भी इसका मर्म नहीं समझ सके । टीका के 'जानामि यदि' में ही सम्पूर्ण अर्थ निहित है । उसका भाव इस प्रकार है :
कमल सदैव सूर्य पर अवलम्बित रहते हैं । सूर्य के उदय और अस्त के साथ उनका भी उन्मीलन और निमीलन होता है । साहित्यिक भाषा में यों भी कह सकते हैं कि वे सूर्य को देखते ही प्रसन्न हो जाते हैं और न देखने पर तुरन्त म्लान हो जाते हैं । सूर्य ( सूर ) भी तो आखिर सूर शूर ) ही ठहरा । उसे इतना महत्त्व देना अनुचित भी नहीं है । परन्तु कमल भले ही सूर्य पर लट्टू होते हों, सूर्य कमलों का कौन सा उपकार कर देता है, यह समझ में नहीं आता । जब तक बेचारे जल में रहते हैं तभी तक सूर्य की किरणें उन्हें विकसित करती हैं । जब सरोवर का जल शुष्क हो जाता है या उनकी जड़ें उखाड़ दी
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