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वज्जाररंग
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द्वितीयार्थ-तुम अपने से अन्य को नहीं जानते हो, निश्चय ही लक्ष्मी-द्वारा परिकरीकृत ( वाहन बनाये गये ) पक्षी ( अर्थात् उलूक पुराणों के अनुसार लक्ष्मी का वाहन उल्लू है ) हो। अरे ! तुम सूर्य के सम्मुख होकर देखो तो, वह (सूर्य) तुम्हारे मुख को भी स्थिर नहीं होने देता है ( उल्लू सूर्य को देखने में असमर्थ होता है )।
कमल शब्द का प्रयोग न होने के कारण यदि धनिक-निन्दा के सन्दर्भ में निम्नलिखित अर्थ ग्रहण करें तो भी कोई क्षति नहीं है
(हे धनिक ) तुम अपने से अन्य को नहीं जानते हो, ( अर्थात अपने आगे किसी को भी सौभाग्यशाली नहीं समझते ), निश्चय ही तुम लक्ष्मी से सेवित और गुणवान् हो । परन्तु अरे ! देखो तो, उज्ज्वल जनों का ( पूतचरित मनुष्यों का ) समूह ( तुम से ) वचन भी नहीं स्थापित करता है ( अर्थात् बात भी नहीं करता है)।
द्वितीय अर्थ पूर्ववत् ही होगा।
गाथा क्रमांक ७१३ लच्छीए परिगहिया उड्ढमहा जइ न हंति ता पेच्छ ।
जेहिं चिय उड्ढविया तं चिय नालं न पेच्छंति ॥ ७१३ ।। पता नहीं क्यों इसे भी अस्पष्ट घोषित कर दिया गया है। इस सुन्दर और सरल पद्य में कवि ने यह बताया है कि जिन पर लक्ष्मी की कृपा हो जाती है, उनकी दृष्टि ऊँची हो जाती है। वे उन लोगों की ओर कभी नहीं देखते हैं जिनके त्याग, बलिदान और श्रम के बूते पर आज भी जीवित हैं। इस मार्मिक तथ्य की अभिव्यक्ति के लिये कमल को प्रतीक-रूप में चुना गया है। परम्परानुसार कमल लक्ष्मी का आवास है। वह जब विकसित होता है तब उसका मुख ऊपर ही रहता है, कभी भी नालों की दिशा में नहीं मुड़ता है। कदाचित् वह भूल जाता है कि वे ही नाल ( मृणाल ) हैं जिन्होंने कभी कलुषित पंक से ऊपर उठा कर मुझे पंकज से सुरभित कमल ( जल की शोभा बढ़ाने वाला ) बनाने का कार्य किया है और आज भी आकण्ठ जल में निमग्न रह कर कण्टकित शरोर से अहरह इस अनुत्तम सुषमा समृद्धि और विभूति का असहनीय भार ढो
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