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________________ ४५४ वज्जालग्ग अप्पा ( आत्मनः) = अपने से परं = अधिक भिन्न सउण ( सगुण ) = १. तन्तु-सहित या गुण-सहित २. शकुन - पक्षी लच्छिपरियरिय = १. लक्ष्मीपरिचरितः = लक्ष्मी से सेवित, २. लक्ष्मीपरिकरित - लक्ष्मी-द्वारा परि कर बनाया गया। उज्जलसमुह = १. उज्ज्वल समूहः = जिसका समूह उज्ज्वल है, २. उज्ज्वल-सम्मुख = सूर्य के सम्मुख ( उद्गच्छति जलं येनासो उज्जलः सूर्यस्तस्य सम्मुखः), ३. जिसका अपना मुख उज्ज्वल है (उज्ज्वलं स्व मुखं यस्य )। ह = निन्दार्थक या पादपूर्ति-प्रयोजक अव्यय । ताव = १. तावत् = तो, २. वचनम् वयणं = १. वदनम् = मुंह, २. वचनम् ठावेइ = १. रक्षा करती है । २. स्थिर करता है । 'तावयणं' की अन्य व्याख्या इस प्रकार सम्भव है ता = लक्ष्मी ( पाइयसद्दमहण्णव ) व = वा = और, ही (पाइयसद्दमहण्णव ) वाव्ययोत्खाता-दावदातः ११६७, इस हैम * सूत्र से ह्रस्वत्व । अयणं = घर 'तावयणं न हु ठावेइ' अर्थात् लक्ष्मी ही अपने घर ( अयणं - गृह) को स्थापित नहीं करती ( रक्षित नहीं रखती )। गाथार्थ-(हे कमल ) तुम जल विकार से अधिक ( या अन्य ) नहीं जानते हो, निश्चय ही तुम्हारा समूह उज्ज्वल है, तन्तुसहित ( या गुण-सहित ) हो तथा लक्ष्मी से सेवित हो। हः देखो तो ( वह लक्ष्मी ) घर ( कमल ) को भी नहीं सुरक्षित रखती है ( अर्थात् उसे भी श्री हीन करके अन्त में चली जाती है या तुषारादि से उसकी रक्षा नहीं करती है)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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