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वज्जालग
इस अनुवाद के सम्बन्ध में यह पाद-टिप्पणी दी गई हैThe sense of the second half of the gatha is obscuro.
उपर्युक्त अनुवाद से लगता है, जैसे गाथा में कमल की प्रशंसा की गई हो जबकि प्रकरण के अनुसार उसकी निन्दा होनी चाहिये। अतः उक्त अधूरे अनुवाद को भी सन्तोषजनक नहीं कहा जा सकता है।
प्रस्तुत गाथा में प्रकरणतः कमलनिन्दा वणित है। एतदर्थ कवि ने श्लिष्ट पदों का प्रयोग किया है । पूर्ववर्ती टीकाकारों ने श्लेष पर ध्यान नहीं दिया, जिससे उनको व्याख्यायें कमल-प्रशंसा परक बन गईं। उल्लू मूर्खता का प्रतीक होने के कारण निन्दा का पात्र है । यहाँ तुल्य विशेषणों द्वारा कमल और उल्लू ( उलूक) को एक साथ प्रस्तुत किया गया है। यदि चाहें तो कमला के निवास कमल को धनिकों का प्रतीक भी मान सकते हैं। इस सन्दर्भ में एक बात पर और ध्यान देना है । गाथा में कमल शब्द का प्रयोग कहीं भी नहीं है। कमल निन्दा-प्रकरण में संकलित होने के कारण ही इसको कमल से सम्बद्ध किया गया है। अर्थसौकर्य की दृष्टि से विवेच्य गाथा को इस प्रकार पढ़ना होगा।
अप्पा परं न याणसि नणं सउणो सि लच्छिपरियरिओ।
उज्वल समुहो पेच्छ ह ता वयणं न हु ठावेइ ॥ छाया-आप्यात् ( आत्मनः) परं न जानासि नूनं सगुणोऽसि (शकुनोऽसि )
लक्ष्मीपरिचरितः ( लक्ष्मीपरिकरितः )। उज्ज्वलसमूहः (उज्ज्वलसम्मुखः) प्रेक्षस्व ह तावदयनं (तद्वदनं) न स्थापयति
शब्दार्थ-अप्पा' ( आप्यात्२ ) = जल-विकार ( कर्दम-तरंग-भंगादि ) १. ङसेरादोदुहयः-प्राकृत-प्रकाश, ५।६ २. पाणिनीय व्याकरण अप् शब्द में विकारार्थक मयट् प्रत्यय का विधान करता
है परन्तु श्री हर्ष ने कई स्थलों पर आप्य ( अम्मय के अर्थ में) का प्रयोग किया है। निम्नलिखित श्लोक द्रष्टव्य है
तस्यां मनोबन्ध विमोचनस्य कृतस्य तत्कालमिव प्रचेताः ।
पाशं दधानः करबद्धवासं विभुर्बभावाप्यमवाप्य देहम् ।। नैषध, १४॥६७ टीकाकार मल्लिनाथ ने आप्य शब्द की सिद्धि के लिये चान्द्र व्याकरण का सूत्र 'आप्याञ्च' उद्धृत किया है । अमर कोश में इस शब्द का उल्लेख यों है
आप्यमम्मयम् ।
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