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________________ ४५२ वज्जालग्ग वच्चंति अहो उड्ढं अइंति मूलंकुरव्व पुहईए । बीआहि व एक्कत्तो कुलाहि पुरिसा समुप्पण्णा ।। ७२२ ।। गाथा क्रमांक ७१२ अप्पं परं न याणसि नूणं सउणो सि लच्छिपरियरिओ। उज्जल-समुहो पेच्छह ता वयणं पि हु न ठावेइ।। ७१२।। आत्मानं परं न जानासि नूनं सगुणोऽसि लक्ष्मीपरिचरितः । उज्ज्वलसम्मुखः प्रेक्षध्वं तद्वदनमपि खलु न स्थापयति ।। -श्री पटवर्धनस्वीकृत संस्कृत छाया प्रस्तुत गाथा का विकृत पाठ प्रत्येक व्याख्याकार के समक्ष एक जटिल समस्या उपस्थित कर देता है जहाँ पूर्वार्ध में 'याणसि' और 'मसि' क्रियायें मध्यम पुरुष एक वचन की है वहीं उत्तरार्ध में प्रथम पुरुष एकवचन की क्रिया 'पेक्खई' भी विद्यमान है । यदि कमल को सम्बोधित मानते हैं तो पुरुषान्तर की क्रिया 'ठावेइ' से उसका अन्वय ही नहीं होता है। यदि 'उज्जलसमुहो' को उत्तरार्ध का कर्ता मानें तो कठिनाई यह उपस्थित होती है कि मध्यम पुरुष बहुवचन की क्रिया पेच्छह' को किससे सम्बद्ध करें। इन समस्त अव्यवस्थाओं के निराकरण के लिये संस्कृत-टीकाकारों ने पुरुषव्यत्यय-द्वारा 'ठावेइ' को 'स्थापयसि' मानकर व्याख्या करने का प्रयत्न किया है परन्तु वे 'पेच्छह' का अर्थ 'पश्यत' लिखकर उससे सम्बन्धित जटिलता का कोई समाधान नहीं कर सके । संस्कृत-टीका में प्रमुख पदों के अर्थ इस प्रकार दिये गये हैंअप्पापरं न याणसि = आत्मानं परं च न जनीषे । सउणो = सपुण्यः लच्छिपरियरिओ = लक्ष्म्या परिकरितः ठावेइ = स्थापयसि पेक्खह = पश्यत उज्जलसमुहो = उज्ज्वलसमूहः श्री पटवर्धन ने 'सउण' का अर्थ 'सगुण' और 'उज्जलसमहो' का अर्थ 'उज्ज्वलसंमुखः' लिखकर यह अधूरा अनुवाद किया है "तुम न तो अपने को और न दूसरे को ही जानते हो। निश्चय ही तुम तन्तुयुक्त ( पक्षान्तर में सद्गुणों से युक्त ) हो और लक्ष्मी से सेवित हो।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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