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________________ वज्जालग्ग ४५१ इस गाथा का अंग्रेजी अनुवाद इस प्रकार है "उसके जन्म लेने से क्या ? अथवा उसके मर जाने से ही क्या ? जिसके लिये नगर में घर-घर शोक न हो।" ( मूल का अनुवाद ) प्रो० पटवर्धन ने मूल में स्थित आइय (आगत ) का अर्थ उत्पन्न ( born ) और गय ( गत ) का अर्थ मृत ( dead ) तथा रणरणय का अर्थ शोक ( sorrow ) किया है। प्रथम दो शब्दों के अर्थ लाक्षणिक हैं । लक्षणा का आश्रय लेना उसी दशा में उचित है, जब मुख्यमार्ग बाधित हो। यहाँ जब मुख्यार्थ से ही काम चल सकता है तब दूर जाने की क्या आवश्यकता है ? यदि उक्त लाक्षणिक अर्थ मान भी लें तो अन्य प्रश्न उठ खड़ा होता है। उन्होंने 'रणरणय' का अर्थ शोक किया है। मृत्यु हो जाने पर शोक होना स्वाभाविक है । परन्तु किसी का जन्म होने पर शोक की बात समझ में नहीं आती। यदि कहें कि शोक केवल मरण के लिये है तो गाथा में वैशिष्ट्यहीन जन्म की चर्चा क्यों की गई ? यदि 'जिसके लिये' को आगमन और गमन के बजाय उस व्यक्ति विशेष से अन्वित करें तो भी ( जिस व्यक्ति के लिये नगर के घर-घर में शोक न हो ) यह अर्थ नितान्त अमांगलिक बन जाता है। यदि शोक के स्थान पर उत्सुकता अर्थ करें तो अमांगलिकता नहीं रहेगी। इस सीधीसी गाथा का वास्तविक तात्पर्य तो यह है कि जिसके आने पर लोग प्रसन्न न हों और जाने पर दुःखी न हों, उसके आने और जाने से क्या लाभ है ? कवि ने यहाँ कुशलता पूर्वक एक ही शब्द से हर्ष और उद्वेग-दोनों अर्थों को प्रकट कर दिया है । 'रणरणक' अनेकार्थक शब्द है। वह निःश्वास, उद्वेग-औत्सुक्य और अधति का बोधक है तथा आगमन के पक्ष में औत्सुक्य ( हर्ष जनित ) और गमन के पक्ष में उद्वेग का अर्थ दे रहा है। मैंने हिन्दी अनुवाद में उक्त शब्द का अर्थ अधीरता ( अधृति ) दिया है क्योंकि किसी प्रियदर्शन सज्जन के आगमन पर उसे देखने के लिये जैसी अधीरता प्राणियों में देखो जाती है, वैसी ही उसके चले जाने पर भी होती है। गाथा क्रमांक ७०२ उड्ढं वच्चंति अहो वयंति मूलंकुर व्व भुवणम्मि । विज्जाहियए कत्तो कुलाहि पुरिसा समुप्पन्ना ।। ७०२ ॥ गाथा का मूलपाठ अशुद्ध है । संग्रहकार ने इसे वाक्पतिराजकृत गउडवहो से संकलित किया है । वहाँ इसका पाठ इस प्रकार है-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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