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परन्तु यह क्लिष्ट कल्पना है । यहाँ सीधे-सादे शब्दों में भरण की सरित्कृद्-भुवनान्तर भरण से उपमा दी गई है । है - श्लोक का एक चरण | गाथा में काव्य-रचना का महत्व और उससे मिलने वाले यश का वर्णन है । चतुर्थ = चरणनिविष्ट भुवणंतर पद में श्लेष है । उसकी व्याख्या निम्नलिखित है
वज्जालग्ग
भुवणंतरं (भुवनान्तरम् ) = सम्पूर्ण जगत्
भुवणंतरं (भूवनान्तरम् ) = भुवः पृथिव्याः वनानां च अन्तरं मध्यभागम् । अर्थात् पृथ्वी और वनों के मध्य भाग को । श्लेषानुरोधवश भू का भु हो जाना प्राकृत की प्रकृति के विरुद्ध नहीं है | अपभ्रंश में स्वरों के स्थान पर अन्य स्वर प्रायः हो जाते हैं । प्राकृत में भी छन्दोऽनुरोध से गुरु को लघु और लघु को गुरु हो जाता है । "
गाथार्थ - श्लोक का जन्म लेने से क्या लाभ है नहीं भर दिया जिस प्रकार भर देती है ।
चतुर्थ चरण की संस्कृत छाया में श्लेष की सूचना के लिये 'भूवनान्तरम्' का भी निवेश आवश्यक है । तभी संस्कृत-छाया पाठ से सरित्पक्षीय समीचीन अर्थ की स्पष्ट अवगति संभव होगी । सरित्पक्ष में भी भुवनान्तर का अर्थ सम्पूर्ण जगत् समझने की भूल नहीं करनी चाहिये क्योंकि बड़ी से बड़ी सरिता भी सम्पूर्ण जगत् को प्लावित करने में समर्थ नहीं है । अतिशयोक्ति उपमेय के पक्ष में होती है, उपमान के पक्ष में नहीं ।
१. गुरुत्वलाघवं वशात् ।
यशः कृत् भुवनान्तर'पय' ( पद) का अर्थ '
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गाथा क्रमांक ७०१
किं तेण आइएण व किं वा पसयच्छ तेण व गएण । जस्स कए रणरणयं नयरे न घराघरं होई || ७०१ ॥
एक चरण भी पूर्ण करने में असमर्थ उस पुरुष के जिसने जगत् के विभिन्न भागों को इस प्रकार यश से सरिता पृथ्वी और वनों के मध्य भाग को (प्लावन से )
- प्राकृतानुशासन, १७।१६
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