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________________ वज्जालग्ग ४४९ युन सन्दर्भ के आलोक में रख दें तो अर्थ में कोई विसंगति नहीं रहेगी। गाथार्थ-तो निगुण (गुणहीनजन) ही श्रेष्ठ हैं जो प्रभु से नई उपलब्धि होने पर सन्तुष्ट हो जाते हैं। गुणीजन गुणों के अनुरूप फल (पारितोषिक आदि लाभ) न पाते हुए क्लेश उठाते हैं । गाथा क्रमांक ६९९ किं तेण जाइएण वि पुरिसे पयपूरणे वि असमत्थें । जेण न जसेण भरियं सरिव्व भुवणंतरं सयलं ।। ६९९ ।। कि तेन जातेनापि पुरुषेण पदपूरणेऽप्यसमर्थेन येन न यशसा भृतं सरिद्वद् भुवनान्तरं सकलम् -रत्नदेव-सम्मत संस्कृत-छाया रत्नदेव की संस्कृत छाया के आधार पर श्री पटवर्धन ने इसका यों अनुवाद किया है "जो पुरुष उच्चपद को पूर्ण करने में भी असमर्थ है, जिसने सरिता के समान सम्पूर्ण जगत् को यश से भर नहीं दिया उसके जन्म लेने से भी क्या लाभ ?" इस अनुवाद को ठीक नहीं कहा जा सकता है। ‘पयपूरणे वि' इस कथन में 'वि' (अपि) के द्वारा 'पयपूरण' (पदपूरण) को किस तुच्छता को सूचना दी गई है, वह उच्चपद में बिल्कुल नहीं है । प्रायः चाटुकारिता, परिस्थिति-विशेष या अन्य आकस्मिक कारणों से अयोग्य व्यक्ति भी उच्च पदों पर पहुँच जाते हैं और सुयोग्य व्यक्ति खड़े ताकते रह जाते हैं । अतः जब उच्चपद पर पहुँचना केवल अपने अधीन नहीं है तब उसके अभाव में किसी पुरुष के जन्म की व्यर्थता का प्रतिपादन करना अनुचित है। यदि हीरे को राजमुकुट में स्थान नहीं मिला तो उसका क्या दोष है ? दोष तो उस अभागे राजा का है जो उस बहुमूल्य हीरे को पहचान नहीं सका। श्री पटवर्धन ने लिखा है-“पयपूरणे" को अपभ्रंश को शैली में करण कारक एकवचन का रूप मानकर निम्नलिखित रीति से उसे उपमान सरित् से भी संबद्ध किया जा सकता है यथा सरिता पयःपूरणेन( = पूरेण) सकलं भुवनान्तरं भ्रियते (= व्याप्रियते) तथा येन पुरुषेण पदपूरणे असमर्थेन सकलं भुवनान्तरं यशसा न भृतं (= व्याप्तम् ) तेन पुरुषेण जातेनापि किम् (पृ० ५७७) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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