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वज्जालग्ग
गाथा में यह बताया गया है कि जैसे मुक्ता में सूत्र के प्रवेश के लिये छिद्र के साथ-साथ सूई का प्रवेश आवश्यक है ( क्योंकि सूई की सहायता से ही सूत मुक्ता के भीतर प्रवेश करता है ), वैसे ही संपर्क-शून्य प्रभु का अन्तरंग बनने के लिये गुणवान् जनों की तालिका में सेवक का नाम अंकित होना भी अनिवार्य है ।
गाथार्थ-सेवक छिद्ररहित मुक्ताहल के समान उस गुणवान् प्रभु का क्या करे (अर्थात् उसकी कौन-सी सेवा करे) जो उसके (सेवक के) गुणों को भूल गया है (या जानता ही नहीं है या जिस पर कोई प्रभाव ही नहीं पड़ता है)। जहाँ सूई का प्रवेश नहीं होता वहाँ (अर्थात् छिद्र रहित मुक्ताहल में) सूत्र (गुण) बाहर ही रह जाते हैं। ___ अन्य अर्थ-जहाँ तालिका (फिहरिस्त) का प्रवेश नहीं हो पाता (अर्थात् तालिका सामने नहीं लाई जाती है। वहाँ गुण (अच्छाइयाँ) बाहर ही रह जाते हैं (अर्थात् उपेक्षित रह जाते हैं)।
गाथा क्रमांक ६९५ ता निग्गुण च्चिय वरं पहुणवलंभेण जाण परिओसो।
गुणिणो गुणाणुरूवं फलमलहंता किलिस्संति ।। ६९५ ।। श्री पटवर्धन ने लिखा है कि निग्गुण शब्द "णिग्गुत्तणे (निर्गुणत्व) के अर्थ में है। उनका यह मत ठीक नहीं है। यहाँ 'निग्गुण च्येय' का अर्थ 'निर्गुणा एवं' है। 'पहुणवलंभेण' का अर्थ उन्होंने यह दिया है-"जिन्होंने नया स्वामी निश्चित किया है ।" (पृ० ५७६) ___ मैं समझता हूँ, यहाँ इस शब्द का अर्थ है-प्रभु से होने वाला नया लाभ । जो सेवक गुणहीन होते हैं उन्हें जब स्वामी प्रसन्न होकर कुछ देता है, तब वह कृपोपजीविनी उपलब्धि उनके लिये सर्वथा नई होती है क्योंकि प्रायः गुणहीन होने के कारण उन्हें पुरस्कृत होने का अवसर मिलता ही नहीं है। अतः वे बेचारे यत्किचित् लाभ से ही सन्तुष्ट हो जाते हैं। गुणीजनों की स्थिति विपरीत है। वे तो तभी सन्तुष्ट होते हैं जब गुणों की गरिमा के अनुकूल कोई पारितोषिक प्राप्त होता है । प्रायः गुणों के अनुरूप पारिश्रमिक मिल नहीं पाता है। अतएव गुणीजन जीवन में अधिकतर असन्तोष-जनित क्लेश से पीडित रहते हैं ।
श्री पटवर्धन ने लिखा है-"इस गाथा के पूर्वार्ध का भाव अस्पष्ट रह गया है और उत्तरार्ध से उसकी तर्कसम्मत संगति नहीं बैठती।" यदि गाथा को उप
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