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________________ वज्जालसंग ४४७ गाथा क्रमांक ६९३ मुत्ताहलं व पहुणो गुणिणो किं करइ वेहरहियस्स । जत्थ न पविसइ सूई जत्थ गुणा बाहिर च्चेय ॥ ६९३ ।। मुक्ताफलमिव प्रभोर्गुणिनः किं करोति वेघरहितस्य यत्र न प्रविशति सूची तत्र गुणा बहिरेव -रत्नदेव-सम्मत संस्कृत छाया अंग्रेजी टिप्पणी में 'मुत्ताहलं' को षष्ठयन्त रूप देकर और कर्ता का बाहर से आक्षेप कर, पूर्वार्ध का अन्वय इस प्रकार किया गया है "मुक्ताफलस्य ईव वेधरहितस्य प्रभोः गुणिनोऽपि पुरुषः किं करोति ।" रत्नदेव ने कर्ता का बाहर से आक्षेप नहीं किया है। वे 'करइ' क्रिया को बहुवचन मानते हैं । 'गुणिनः' 'प्रभोः' का विशेषण नहीं अपितु 'करइ' क्रिया का प्रथमान्त कर्ता है"वेधरहितस्य प्रभोः गुणिनः किं कुर्वन्ति । यथा मुक्ताफलस्य वेधरहितस्य ।" -संस्कृत टीका हम 'गुणिणो' को 'पहुणो' का विशेषण मानकर कर्ता के रूप में सेवक का आक्षेप करना अधिक समीचीन समझते हैं । 'करई' क्रिया कुर्यात् या करोतु के अर्थ में है । उत्तरार्ध में सूई ( सूची ) शब्द श्लिष्ट है, जिसका दूसरा अर्थ बताने में असमर्थता व्यक्त करते हुए श्रीपटवर्धन ने लिखा है "It is not clear in what sense the word of is intended by the author in the case of the प्रभु' अर्थात् प्रभु के पक्ष में लेखक को सूची का कौन-सा अर्थ अभिप्रेत है, यह स्पष्ट नहीं है। 'सूई' ( सूची ) शब्द का दूसरा अर्थ अनुक्रमणिका या तालिका (फिहरिस्त) है । अन्य पदों के अर्थ इस प्रकार हैं गुण = १. अच्छाई २. सूत्र, तागा वेह (वेध) = १. छिद्र २. संपर्क, अनुस्मरण या ज्ञान ( देखिये, पाइयसहमहण्णव ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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