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________________ ( xxx ) वहीं तक सीमित रह गया है, जहाँ तक वह किसी मानवीय मनोभाव के उत्कर्ष या अपकर्ष में सहायक होती है । ऐसे वर्णनों में प्राकृतिक दृश्य विधान कवि का लक्ष्य नहीं है, फिर भी कल्पना की कमनीयता और शैली की वक्रता देखकर मन मुग्ध हो जाता है । तुलना में प्रकृति सुख को अपेक्षा दुःख का उद्दीपन करने के 'लिये अधिक प्रयुक्त है । गाथाओं में विप्रलम्भ शृंगार की बहुलता ही इसका हेतु है । जब पावस में सान्द्र मेघ गंभीर-गर्जन करने लगते हैं और जब कल्लोलावर्त- संकुल कूलंकषा कल्लोलिनियाँ सलिल-पूर-प्लावित वसुन्धरा को दुर्लध्य बना देती हैं, तब मार्गों के अवरुद्ध हो जाने के कारण प्रोषित-पतिका प्रवासी प्रियतम के लौटने की आशा छोड़ देता है। प्रियतम के ध्यान में तल्लीन कृशकलेवरा विरहिणियों की वेदना देख कर सहानुभूति से मेघों का हृदय भी द्रवित हो उठता है और जलधारा के व्याज से अश्रु टपकने लगते हैं। हरित शाद्वलमंडित वनस्थली में नर्तनशील उच्छृत-शिखंड मयूर उन प्रवासियों का पता पूछने लगते हैं, जो अपनी प्रेयसियों को अकेली छोड़ कर दूर चले गये हैं। कलकंठी प्रवासियों को चेतावनी देने लगती है कि जब तक तुम्हारी प्रिया मर नहीं जाती, तब तक घर लौट आओ। एकान्त सदन में अवधि-गणना-तत्पर अकेली पथिक-प्रिया को विद्युत पिंगाक्ष कृष्ण मेघ उल्कापिशाच सा दिखाई देता है (६४१, ६४७, ६४८ ६४९, ६५०) । शिशिर के दिनों को इसलिये शाप दिया जाता है कि उनके कारण अप्रिय पत्नी के प्रति भी 'प्रणय का अभिनय करना पड़ता है ( ६६५ )। गृह प्रांगण में प्रवर्धमान सहकार तरु भी वसन्त आने पर वसा, अन्त्र और मांस का शोषण करने लगता है (६३९)। ग्रीष्म में दवाग्न्नि की मसि से मलिन विन्ध्य शिखरों को देख कर प्रोषितपतिकायें वर्षा के श्यामल मेघों की संभावना से व्याकुल हो उठती हैं। उपर्युक्त उदाहरणों में प्रकृति विविध परिस्थियों में पड़े मानव-हृदय को नाना रूपों से प्रभावित करती है । वज्जालग्ग में प्रकृति एक रूप में और दिखाई देती है। वहाँ वह न तो उद्दीपन के रूप में प्रभाव डालती है और न प्रतीक के रूप में । उसका उद्देश्य केवल व्यंजनाव्यापार द्वारा किसी अभिप्रेतार्थ की अभिव्यक्ति कराना है : मा रुवसु ओणयमुही धवलायतेसु सालिछेत्तेसु । हरियालमंडियमुहा नड व्व सणवाडया जाया ।। शालि क्षेत्रों के श्वेत हो जाने पर (सूख जाने पर) शिर झुकाये मत रोओ, । हरिताल से विभूषित मुख वाले नट के समान सन के खेत तैयार हो गये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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