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( xxix )
सुवर्ण
जलधर
हंस-मानस
आश्रित-आश्रय चन्दन
सज्जन वट
आदर्श आश्रयदाता ताल
कृपण स्वामी वडवानल
तेजस्वी पुरुष या शत्रु सिन्धु
महापुरुष और आश्रयदाता
गुणवान् दीपक
गुणवान् रत्नाकर
धनी, कृपण, आश्रयदाता कटहल
सुसेव्य स्वामी
दाता चातक
याचक कृष्णदन्त
निखट्ट, सेवक उज्ज्वलदन्त
कर्मठ सेवक मधुपटल
आनन्द कौस्तुभ
गुणवान् चन्द्र पाटला
श्रेष्ठ सुन्दरी जलरंकु
खल भ्रमर
उपर्युक्त प्रतीकों में अधिकतर साहित्यिक परम्परा में पुराकाल से ही प्रसिद्ध हैं । इनमें बाह्य दृष्टि से जितना वैविध्य है, आन्तरिक दृष्टि से उतना नहीं है । प्रायः एक अर्थ के प्रत्यायक कई-कई प्रतीक दिखाई देते हैं । परन्तु इन प्रतीकों के माध्यम से जिन भावों का सम्प्रेषण किया गया है, वे बड़े मार्मिक है। कहीं-कहीं एक ही प्रकरण में एक ही वस्तु के लिये कई प्रतीक बारी-बारी आये हैं, फिर भी आर्थिक चमत्कार में न्यूनता नहीं आने पाई है। शृंगारिक अभिव्यक्ति के लिए अनेक नूतन और मौलिक प्रतीकों को भी सृष्टि की गई है।
ऋतु-वर्णन के प्रसंग में यद्यपि प्रकृति-वर्णन का पर्याप्त अवसर था, परन्तु वहाँ भी वह उद्दीपन विभाव का अंग बनकर रह गई है। प्रकृति का उपयोग
खल
१. इन प्रतीकों का परिचय अनुवाद में यथास्थान दिया गया है।
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