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________________ ( xxxviii ) "विविध व्यापारों में विद्यमान सारूप्य पर हो अधिक रहती है । ऐसे कवि प्रकृति को प्रतीक के रूप में ग्रहण करते हैं । प्रकृति उनका साध्य नहीं, साधन मात्र रहती है । अतः उनके वर्णनों में बिम्बसृष्टि का कोई प्रश्न ही नहीं है । इसी -दृष्टि-भेद के कारण वज्जालग्ग में प्रकृति आलम्बन के रूप में कम उपलब्ध होती है । उद्दीपन और अप्रस्तुत योजना के अन्तर्गत ही उसका अधिक विनियोग दिखाई देता है । वस्तुतः अप्रस्तुत योजना के रूप में प्रकृति का जितना प्रचुर प्रयोग किया गया है, उतना उद्दीपन के रूप में भी नहीं । अप्रस्तुत योजना दो प्रकार की है— उपमान और प्रतीक । प्रथम में प्राकृतिक दृश्य विधान का कोई अवसर ही नहीं है । द्वितीय प्रकार में भी, प्रतीक स्वतन्त्र नहीं रहते हैं, उन्हें - सारूप्यवशात् किसी अभिप्रेतार्थ की प्रतीति कराने के लिये ही ग्रहण किया जाता है । प्रतीकात्मक काव्यों की शैली सांकेतिक होती है, वहाँ प्रकृति के उतने अंश पर ही कवि का ध्यान केन्द्रित रहता है, जितने की उसे आवश्यकता रहती है । अतः जहाँ प्रकृति-स्वरूप नहीं, केवल संकेत का प्राधान्य है, वहां बिम्ब-रचना कैसे संभव होगी । वज्जालग्ग में प्रयुक्त प्रधान प्रतीक इस प्रकार हैं, जिनमें अधिकांश का सम्बन्ध प्रकृति से है- प्रतीक गज विन्ध्य धवल सिंह - करभ वेलि इन्दिन्दिर (भ्रमर ) सुर-तरु- विशेष हंस लेखक यांत्रिक -मुसल उड्ड शशक कमल Jain Education International अर्थ प्रतापी या स्वाभिमानी पुरुष आश्रयदाता कर्मठ सेवक पराक्रमी पुरुष प्रणयी, जन्मभूमि से वियुक्त पुरुष नायिका, सुन्दरी प्रणयी, छली प्रणयी श्रेष्ठ आश्रयदाता सज्जन अथवा विद्वान् मैथुनकारी 17 लिंग भोगी प्रवासी, प्रणयी राजा और कुत्सित आश्रयदाता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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