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________________ वज्जालरंग श्रीपटवर्धन ने चतुर्थ चरणावस्थित 'वहयणे' को 'वधूजने' समझकर तृतीयचरणावस्थित 'थणयाण' से इस प्रकार अन्वित किया है--वहुयणे तह य थणयाण ( वधूजने तथा च स्तनानाम् )। परन्तु यह क्लिष्ट-कल्पना उचित नहीं है। इस व्याख्या से गाथा में वधू शब्द की दो बार निरर्थक आवृत्ति होने पर पुनरुक्ति दोष होगा। वधूजने तथा च स्तनानां स्थानच्युतानां क आदरं करोति--इस वाक्य का सीधा अर्थ है कि वधूजनों में स्थानच्युत स्तनों का कौन आदर करता है। प्रश्न यह है कि तरुणियों के उरोजों की उन्नति को महत्त्व और आदर तरुणियाँ ( वधुयें ) देती हैं या तरुण ? भला तरुणियों के कामोद्दीपक उरोजों के स्थानच्युत हो जाने पर दूसरी वधूटियों का क्या जाता है, जो वे उनका आदर नहीं करेंगी। याद 'बहुयणे' की सप्तमी विभक्ति को षष्ठी के अर्थ में लें तो भी दुरारूतु कल्पना होगी। अतः 'वहुयणे' को उपर्युक्त व्याख्या ठीक नहीं है। यदि 'बहुयणे का संस्कृत-रूपान्तर 'बहुजने' कर दें तो अर्थ-सौकर्य होगा, गाथा के संस्कृत रूपान्तरका अन्वय इस प्रकार करना चाहिये-- स्थानच्युतानां केशानां दन्तनखठक्कुराणां तथा च वधूकानां स्तनानां बहुजने क आदरं करोति । इस वाक्य में 'तथा च' को वधूकानां के पूर्व या पश्चात्-- कहीं भी रख सकते हैं। पूर्व रखने पर उतने अंश का अर्थ होगा--'और उसी प्रकार वधुओं के स्थानच्युत स्तनों का आदर कौन करता है ?' पश्चात् रखने पर उसका अर्थ यों हो जायगा-स्थानच्युत बहुओं का और स्थानच्युत स्तनों का समादर कौन करता है ? वहुयण = बहुजन = जनसमूह गाथार्थ-सखि ! केश, दाँत, नख, ठाकुर (क्षत्रिय या ग्रामपति ) और वधूटियों के स्तन जब स्थानच्युत हो जाते हैं, तब जनसमूह में उनका आदर कौन करता है ? गाथा क्रमांक ६८३ गहियविमुक्का तेयं जणंति सामाइणो नरिंदाणं । दंडो तह च्चिय ट्ठिय आमूलं हणइ टंकारो ॥ ६८३ ।। गृहीतविमुक्तास्तेजो जनयन्ति सामाजिका नरेन्द्राणाम् दण्डस्तथैव स्थित आमूलं हन्ति टणत्कारः -श्री पटवर्धनकृत संस्कृत छाया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001736
Book TitleVajjalaggam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayvallabh, Vishwanath Pathak
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1984
Total Pages590
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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