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वज्जालग्ग
मन्मथभक्षण - दिव्यौषध्याङ्गं च करोति जराराजः । प्रेक्षध्वं निष्ठुरहृदय इदानीं तं सेवते कामः ॥
रत्नदेव ने इस गाथा की व्याख्या नहीं की है और प्रो० पटवर्धन ने भी इस का अनुवाद नहीं किया है । अंग्रेजी टिप्पणी में लिखा है कि ' वम्मह भक्खणदिव्वोसही' तथा 'अंग' शब्दों के अर्थ स्पष्ट नहीं हैं ।
प्रस्तुत गाथा की जटिलता का प्रमुख कारण उपर्युक्त संस्कृत छाया है | छाया को प्रांजल रूप देने के पूर्व कतिपय पदों का आर्थिक विवेचन आवश्यक है । 'वम्मह भक्खर्णादिव्वो' इस पद में बहुव्रीहि है । यहाँ प्राकृत की प्रकृति के अनुसार दिव्य शब्द का पर-निपात हो गया है । समस्तपद का संस्कृत रूपान्तर ' मन्मथदिव्य भक्षणः ' होगा । इसका अर्थ है - कामदेव ही जिसका सुन्दर भोजन है ( मन्मथ एव दिव्यं भक्षणं भोजनं यस्य ) । इस पद में निम्नलिखित समासान्तर भी संभव हैं - मन्मथस्य दिव्य : भक्षण: ( कर्तरि ल्युट् ) भक्षकः, अर्थात् कामदेव का दिव्य भक्षक | 'कुणई' क्रिया का सम्बन्ध प्राकृत कुण ( कृ का धात्वादेश ) से नहीं है । यहाँ 'कुण' शब्द संस्कृत कूणधातु ( कूण संकोचे ) से निष्पन्न है । प्राकृत की प्रकृति और छन्द के अनुरोध ने 'कूण' को 'कुण' बना दिया है । 'कुणइ' का संस्कृत रूपान्तर कूणयति है । कूणयति का अर्थ है – संकुचित कर देता है या झुका देता है। तृतीय चरण निविष्ट 'निट्ठर हियओ' पद 'जरराओ' का विशेषण है, चतुर्थ चरणस्थ 'कामो' का नहीं । 'जरराओ' में निम्नलिखित ढंग से श्लेष है
जरराओ (ज्वरराजः ) = १. श्रेष्ठ ज्वर
२. जराराज अर्थात् वार्धक्यरूपी राजा
तं शब्द स्त्रीलिंग ताम का प्राकृतरूप है और द्वितीय चरण में अवस्थित 'सही' से अन्वित है | गाथा की संस्कृत छाया को यह रूप देना चाहिये
मन्मथदिव्यभक्षणः सख्याः अङ्गं च कूणयति जराराजः (ज्वर राजः ) । प्रेक्षध्वं निष्ठुरहृदय इदानीं सेवते तां कामः ॥
प्रसंग -- इस पद्य में काम विकार की अपरिहार्यता का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है । नायिका की अवस्था अब ढल चुकी है, फिर भी उसका मन कामवासना से मुक्त नहीं हो सका है । नायिका को सहेली किसी अन्य से उसकी इस प्रवृत्ति का वर्णन कर रही है ।
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